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Friday 18 August 2017

ये अहसासों से सृजित देह


इस माटी की देह में
जिन अहसासों ने....
सांसों में धड़कन
रूह में जान डाली।
वे अहसास न जाने क्यों
लड़खड़ाते से नजर आने लगे
फिर से ये सृजित देह
न जाने क्यों...
अहसासों के बिना
बंजर सी, खुरदरी लगने लगी।
फिर से ये बेजान सी
माटी की मूरत में ढलने लगी।
भावनाओं के खाद-पानी बिना
रिश्ते सूखकर अपनों से ही
बिछड़ने लगे....
रिश्तों के दरकने से
चरमराती आवाजें भी
मौन हो गईं...।
न किसी की वेदना में
अब द्रवित होते हैं मन
न खुशी से प्रफुल्लित ही।
...फिर से ये सृजित देह
माटी के निष्प्राण टीले में
विघटित होने लगी है।
और यहीं कहीं दफन हो गई
अहसासों की अनमोल धरोहर।


कमला शर्मा

Thursday 17 August 2017

प्रेम की तासीर



प्रेम में जैसे कोई
शीतलता की तासीर है
सूरज का दहकता रूप भी
जैसे ढलने लगता.....।
सांझ के करीब आते-आते
तपिश कहीं छोड़ आता
दूरदराज देश में
अहं त्यागकर हौले-हौले
खो जाता है सांझ की
शीतल सुरमई आगोश में।
गुनगुनाना चाहता है कोई
मधुर सुरीला संगीत
समुद्र की शांत लहरों में।
सांझ संग बतियाते हुए
बुन लेना चाहता है
जैसे कोई इंद्रधनुषी सपना।
इस मिलन में बिखर जाती
हया की सुर्ख लालिमा
इस सुरमई शाम में।
प्रकृति भी लजा जाती
और ओढ़ लेती सांझ की
मखमली नर्म चादर
और खो जाती इंद्रधनुषी
सपनों की दुनिया में.....।

कमला शर्मा

Saturday 29 July 2017



ये स्वच्छंद सी लड़कियां

स्वच्छंद चंचल सी लडकियां
दहलीज के उस पार...
न जाने कब ...
सयानी बन जाती हैं
जो आंखों में संजोती थीं
हर रोज अपने नये सपने
अब वो अपनों की आंखो में
सपना देख, उसे बुनती दिखतीं हैं
जिसकी आंखों में तितलियों सी
चंचलता थी....
न जाने कब वो लड़की 
शर्म हया का पर्दा ओढ़
आंखों की चंचलता
छुपाना सीख जाती
जो दिनभर चहकती थी 
बाबुल के आंगन में...
दहलीज के उस पार
ये स्वच्छंद चंचल सी लड़कियां 
न जाने कब... 
दबे सहमे कदमों से
चलना सीख जातीं
अब खुद का अस्तित्व भी 
घर की दहलीज के
उस पार ढूंढ़ती....
घर की ख्वाहिशों में अपनी
खुशियों को समेट लेती
स्वच्छंद चंचल सी लड़कियां
दहलीज के उस पार
न जाने कब...
सयानी बन जातीं...।

कमला शर्मा

Tuesday 18 July 2017

भाषा नयनों की...


आंखों की गहराई में है
सागर सी अनंतता
कई अनकहे-अनसुलझे से
सवाल-जवाब हैं
इन पलकों की ओट में।
कभी ये सागर की मौजों सी
चंचलता बयां करतीं
कभी सागर के शांत जल सी
आंखों में ठहर जाती।
कभी मन के खारेपन को
अश्क के जल में बहा देतीं
इन आंखों की गुफ्तगू में
है मन के कई राज छिपे
नजरें झुकाकर हामी भरती
तो नजरें मिलाकर भरोसा करती
और कभी नजरें चुराकर
अनकहे सवालों में उलझा देती।


कमला शर्मा 

ये सलीका...


जिंदगी की चादर में
जब भी सलवटें आतीं
उन्हें सलीके से समेट कर
तह की परत चढ़ाती
और तर्जुबे के तौर पर
स्मृति की अलमारी में
सहेज लेती ये सलीका।
इस चादर की हर परत में
मैंने सीखा जीने का सलीका
जो जिंदगी की सलवटों में
तर्जुबे की मखमली
चादर बनकर...
नर्म से अहसास से
मुझे सहलाती
और ये लकीरें सिमटकर
तब्दील हो जातीं ...
खुशियों की मखमली
ओढ़नी में.....।

कमला शर्मा 

Wednesday 28 June 2017

LIFE'S SMILE: मन से गुजरती ट्रेन

LIFE'S SMILE: मन से गुजरती ट्रेन: ट्रेन मेरे लिए एक सफर तय करने का संसाधन मात्र नहीं थीं, इसकी रफ्तार के साथ मेरी जिंदगी की रफ्तार तय होती थी। उनींदी अवस्था में भी ट्रेन स...

LIFE'S SMILE: आखिर कब तक...

LIFE'S SMILE: आखिर कब तक...: यात्रा के दौरान मिले खट्टे-मीठे अनुभव जहां सफर को आसान बनाते हैं वहीं कुछ स्मृतियां हमारे जेहन में रह जाती हैं। ऐसा ही कुछ यात्रा वृतां...

आखिर कब तक...



यात्रा के दौरान मिले खट्टे-मीठे अनुभव जहां सफर को आसान बनाते हैं वहीं कुछ स्मृतियां हमारे जेहन में रह जाती हैं। ऐसा ही कुछ यात्रा वृतांत आप लोगों से शेयर कर रही हूं। निजामुद्दीन स्टेशन से जैसे ही ट्रेन में चढ़ी और अपनी सीट पर जाकर बैठी तभी एक महिला मेरे सामने वाली सीट पर आकर बैठ गई। धीरे-धीरे हम दोनों में बातों का सिलसिला शुरु हुआ और जैसा अक्सर हम किसी से मिलने पर औपचारिक बातें करते हैं वैसी ही कुछ हमारे बीच हुइंर् इन्हीं बातों के दौरान महिला ने पूछा- आपको कहां जाना है? मैंने कहा नागपुर। वो महिला बोली- ओह मुझे भी नागपुर ही जाना है। इन्हीं बातों के दौरान महिला ने घर, परिवार, बच्चों के बारे में पूछ लिया जैसे ही मैंने बताया कि मेरी जुड़वा बेटियां हैं तो महिला ने बड़े ही आश्चर्य से कहा ओह...! फिर बोली- काश एक बेटा और एक बेटी हो जाती तो फैमिली कम्पलीट हो जाती। खैर, ईश्वर की मर्जी के आगे किसकी चलती है, मुझे उस महिला की सहानुभूतिपूर्ण बातों से ऐसा लगा जैसे मेरे साथ कोई घटना घट गई हो और वो दुख प्रकट कर रही हो। खैर मैं उसकी बातें सुनकर धीरे से मुसकुराई और उसकी बातों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की लेकिन प्रतिक्रिया नहीं देने का ये मतलब कतई नहीं था कि मैं उसकी बातों से सहमत थी। मैं मन ही मन में सोचने लगी जो महिला वेषभूषा, रहन-सहन के तौर तरीके से आधुनिक प्रतीत हो रही है वो ऐसी बातें कैसे कर सकती है। बाहरी स्वरुप आधुनिकता से लबरेज लेकिन मानसिक स्तर इतना संकीर्ण कैसे हो सकता है ?
ये बात मेरे मन में गहरे बस गई थी। मैंने बातों ही बातों में पूछा क्या आप नौकरी करती हैं ? महिला ने बड़ी ही उत्सुकता में हां में जवाब दिया और बोली कि हम महिलाएं चूल्हा-चौका करने के लिए ही थोड़ी बनी हैं। हमें भी अपनी जिंदगी जीने का अधिकार है। हम पुरुषों से किसी भी तरह कमजोर नहीं हैं। मैंने कहा- आप बिलकुल सही कह रही हैं लेकिन इसके बावजूद भी हमारे समाज में लड़कों को ही प्राथमिकता दी जाती है। परिवार में सिर्फ लड़कियों के होने से परिवार को संपूर्ण नहीं माना जाता लेकिन इसके विपरीत कभी भी सुनने में नहीं आया कि बेटी के बिना परिवार अधूरा सा लगता है। बेटियों के बिना समाज और परिवार पूर्ण है क्या ? क्यों यहां आकर सोच संकीर्ण हो जाती है ?
मानव को बौद्धिक स्तर पर श्रेष्ठ माना गया है, वो श्रेष्ठ है भी, लेकिन इन्हीं में से ऐसे उदाहरण भी मिल जाते हैं जो अपनी आवश्यकताओं और सुविधाओं के अनुसार रीतियों, परम्पराओं और स्वार्थ पूर्ति के लिए समय-समय पर अपनी वैचारिक स्थिति में परिवर्तन करते रहते हैं और दोगले व्यवहार के शिकार भी बन जाते हैं। कई बार सुनने में आता है कि बेटे को लेकर घर-परिवार या समाज का दबाव महिलाओं पर अत्यधिक हो जाता है जो सही नहीं है। महिलाओं को भी अपने जेहन में ये बात रखनी चाहिए कि हम वही स्त्री हैं जिन्होंने आत्मनिर्भर बनने के लिए घर की दहलीज पार करके अपने अधिकारों को समझा और आर्थिक रुप से आत्मनिर्भर बनीं। दुख तो तब अधिक होता है कि जब कुछ महिलाएं ही इस भेद को गहरा कर देती हैं, वे खुद किसी की बेटी रही होंगी, बावजूद इसके बेटा-बेटी वाली बातें करना अशोभनीय प्रतीत होता है। मुझे लगता है कि इसका दोषारोपण घर, परिवार एवं समाज पर कैसे कर सकते है। इस बात पर मैं कतई सहमत नहीं हूं...।
महिला मेरी बात सुनकर असहज सी हो गई...। उसके बाद एक लंबा मौन छा गया, रेल अपनी गति से सफर तय करती जा रही थी लेकिन एक सवाल मेरे मन में कहीं ठहर सा गया था...जिनका जवाब मैं पूरे रास्ते खोजने का प्रयास करती रही।

कमला शर्मा

Saturday 10 June 2017

मन से गुजरती ट्रेन



ट्रेन मेरे लिए एक सफर तय करने का संसाधन मात्र नहीं थीं, इसकी रफ्तार के साथ मेरी जिंदगी की रफ्तार तय होती थी। उनींदी अवस्था में भी ट्रेन सपरट दौड़ा करती थी। ये मेरी दिनचर्या का हिस्सा थी।
बात उस समय की है जब नौकरी के लिए घर से कार्यक्षेत्र जाने के लिए मुझे प्रतिदिन आवागमन करना पड़ता था। सुबह चार बजे उठते ही सबसे पहले नजरें मोबाइल को ढूंढती थी और ट्रेन की लोकेशन को देखती कि कौन सी ट्रेन निर्धारित समय से चल रही है या विलंब से। उसी अनुसार घर के कार्यो का निर्धारण होता था और बच्चे भी उसी रफ्तार का हिस्सा बन गए थे। ट्रेन पकडने के प्रयास में कई बार चाय पीते-पीते छोड़ जाना और भागते हुए स्टेशन पहुंचना ये सब जिंदगी का हिस्सा बन गया था। जब ट्रेन निर्धारित समय पर रेलवे स्टेशन पहुंचती थी तब चेहरे पर एक चमक और सुकून छा जाता था। साथ चलने वाले दोस्त सफर को आसान बना देते थे। इस सफर के दौरान हमने एक खास बात सीख ली थी। भीड़ के बीच में भी अपने लिए जगह बना लेना। ट्रेन में चाहे जितनी भी भीड़ हो इस चुनौती का सामना तो करना ही पड़ता था। गर्मी में जब हांफते हुए भीड़ के बीच प्रवेश करते और सीट पर बैठने के लिए जगह दे देता तो वो व्यक्ति किसी फरिश्ते से कम नहीं लगता था। हमें ट्रेन के नंबर तो जैसे रट ही गए थे।
कई बार एक मिनट के देरी के चक्कर में आंखों के सामने से ट्रेन सरपट निकल जाती और कई बार स्टेशन पर उदघोषणा होते रहती कि ट्रेन पंद्रह मिनट लेट है लेकिन वो पंद्रह मिनट न जाने कब एक घंटे में तब्दील हो जाते थे और हमारे चेहरे पर बच्चों और घर के चिंता, शाम होने का भय स्पष्ट नजर आने लगता। ऐसी स्थिति में तो दोस्तों की बातों पर भी मन नहीं लगता था। बस घर की ही चिंता सताने लगती और बार-बार घर फोन करके बताना कि ट्रेन लेट हो गई। बच्चों को फोन पर ही उनके पास होने का अहसास दिलाना और कभी-कभी इस भागमभाग से मुंह फेरने को मन करता था।
पूरे सप्ताह हमें अवकाश का इंतजार रहता था। शनिवार का सफर कुछ आसान लगता था। अकसर रविवार से अधिक शनिवार राहत देता था क्योंकि इस दिन हम परिवार के साथ मन की जिंदगी जीते थे, छोटी-छोटी खुशियां एक दूसरे से बांटते और खूब खुश होते। रविवार शाम होते-होते फिर वही रफ्तार  हमारी जिंदगी में शामिल हो जाया करती थी। इस सफर के दौरान अक्सर हम दोस्त यही बोलते कि कब इस भागमभाग से छुटकारा मिलेगा।
आज मुझे इस भागमभाग भरी जिंदगी से आराम है लेकिन फिर भी वो दोस्त, चुनौतीपूर्ण जीवन, खट्टे-मीठे अनुभव आज भी याद आते हैं। आज भी जब में कहीं सफर कर रही होती हूं और कोई प्रतिदिन आवागमन करने वाला व्यक्ति नजर आ जाता है तो मैं अपने आप अपनी जगह से थोड़ा सिमटकर बैठ जाती हूं...ये दौड, ये सफर मुझमें बहुत कुछ शिष्टाचार भी सिखा गया। आज भी यही महसूस होता है कि ट्रेन कहीं अंदर से होकर गुजर रही है।


कमला शर्मा

परवाह


सौम्या गांव में पली बड़ी एक सरल स्वभाव की लड़की थी। उसने गांव में रहकर ही शिक्षा प्राप्त की थी, सौम्या बाहरी दुनिया से बेखबर थी। पढ़ने के लिए स्कूल जाना और वहां से सीधे घर आना यहीं तक उसकी दुनिया सिमटी हुई थी। घर के सारे कामकाज करना और पढ़ना उसकी दिनचर्या का हिस्सा था। सौम्या को बाहर आना-जाना बड़ा कठिन काम लगता था लेकिन पढ़-लिखकर नौकरी करने के सपने को आंखो में संजोए उसने स्नातक तक की पढ़ाई पूरी कर ली।
इसी दौरान सौम्या के बडे़ भाई की नौकरी शहर में लग गयी। सौम्या और उसके भाई-बहन बड़े भाई के साथ शहर रहने आ गए क्योंकि गांव में उच्च शिक्षा की सुविधा नहीं थी। गांव की सरल व शांत जिंदगी के बीच से निकलकर शहर की भीड़ भरी जिंदगी की तेज रफ्तार में कदम से कदम मिलाना आसान तो नहीं था लेकिन सपनों को साकार करने के लिए सौम्या इस रफ्तार के साथ सामजस्य बैठाने की कोशिश करने लगी। सौैैम्या अपनी पढ़ाई मन लगाकर करती लेकिन शहर की चकाचौंध और यहां की तेज रफ्तार उसकी शैक्षिक योग्यता पर हावी होने लगी क्योंकि घर से बाहर निकलकर शैक्षिक ज्ञान के साथ साथ व्यवहारिक ज्ञान का होना भी जरूरी था। धीरे-धीरे सौम्या शहर के तौर-तरीके सीखने लगी लेकिन फिर भी कहीं अकेले बाहर आने जाने में वो बहुत डरती थी। जब भी उसे किसी प्रतियोगिता परीक्षा के लिए शहर से बाहर जाना होता तो उसके साथ घर के किसी सदस्य को जाना पड़ता था इसी बात को लेकर उसके बडे़ भाई उसे अक्सर समझाते नौकरी करने के लिए घर से बाहर अकेले रहना पडेगा। सौम्या मुस्कुराकर बोल देती तब की तब देखी जाएगी और जब नौकरी लगेगी तब अकेले भी रह लूंगी। मम्मी-पापा भी इस बात पर हमेशा सौम्या का साथ ये बोलकर लेते कि लड़की है अकेले कैसे भेज दें ......? इस बात पर अक्सर बड़े भाई सब से नाराज होते लेकिन समय बीत रहा था।
एक दिन सौम्या के बडे़ भाई ने घर में मम्मी-पापा से कहा कि सौम्या का दाखिला आगे की पढ़ाई के लिए शहर से बाहर करवा दिया है उसे वहां रहकर पढ़ाई करनी होगी। इतने में मम्मी बोल पड़ी अकेले कैसे रहेगी...? फिर भाई ने मां को समझाया कि हम कब तक उंगली पकड़कर साथ चलेंगे उसे आत्मनिर्भर बनने दीजिए। सौम्या के मम्मी- पापा को अपने बेटे पर खुद से भी अधिक भरोसा था, सो सब मान गए और सौम्या ने भी हामी भरते हुए सिर हिला दिया। उसे मन ही मन में एक डर भी सता रहा था। अब सौम्या जाने की तैयारी करने लगी, भाई ने जाने लिए रेल टिकट का आरक्षण भी करवा दिया और दूसरे दिन बड़े भाई ने कहा सौम्या तुमने जाने की तैयारी कर ली...? इतने में आवाज आई जी भैया। भाई ने कहा चलो तुम्हें ट्रेन मैं बैठाने स्टेशन तक चलता हूं। ये सुनकर सबके चेहरे पर उदासी छा गयी और जैसे सबकी आंखों में सवाल उमड़ घुमड़़ रहे हां ,सौम्या भी मन में चल रही उधेड़बुन के साथ घर से निकली। स्टेशन पहुंचकर भाई ने सौम्या को ट्रेन में किसी महिला यात्री के साथ बैठाया और महिला से बोले ये मेरी बहन है, पहली बार अकेली जा रही है आप ध्यान देना। भाई ने सौम्या को एक डायरी देते हुए कहा इसमें फोन नंबर हैं यदि कोई परेशानी हो तो फोन कर लेना। सौम्या ने कहा ठीक है भैया। सौम्या के मन में एक अजीब सी उधेड़बुन चल रही थी और ना चाहते हुए भी मन में बुरे-बुरे ख्याल आ रहे थे। भाई  सौम्या का हौंसला बढ़ा रहे थे लेकिन उनके खुद के चेहरे पर चिंता साफ झलक रही थी जिसे सौम्या साफ पढ़ पा रही थी। देखते ही देखते ट्रेन स्टेशन से रवाना हो गयी, जितनी रफ्तार से ट्रेन दौड़ रही थी उससे कहीं अधिक तेज सौम्या का मन दौड़ रहा था, मन में आशंकाएं दौड़ रही थीं। मन पल भर में कई सवाल करता और खुद ही उनके जवाब भी ढूंढ लेता ये कशमकश पूरे सफर में साथ चलती रही। पूरी रात सौम्या चैन से सो नहीं पाई और खुद से बातें करती रही। इसी उधेड़बुन में कब स्टेशन आ गया पता ही नहीं चला। सौम्या स्टेषन पर उतरी अब उसे अपने गंतव्य तक जाने के लिए दूसरी ट्रेन  पकड़नी थी लेकिन उसके लिए ये सब आसान नहीं था उसने हिम्मत करके किसी से ट्रेन के बारे में जानकारी ली और आगे का सफर भी बिना किसी परेशानी के पूरा हो गया। अब सौम्या को होस्टल तक पहुंचना था उस दिन उसे लगा अपनों के बिना अकेले अपनी मंजिल तक पहुंचना कितना मुश्किल होता है फिर ऑटो करके होस्टल तक पहुॅच गई। होस्टल जाकर अपना पता वगैरहा लिखवाया, हालांकि भाई सौम्या के रूकने की व्यवस्था पहले से ही फोन पर कर चुके थे और उसे कमरा मिल गया। अब सौम्या कमरे में पहुंचकंर थकान से राहत महसूस कर ही रही थी कि इतने में कोई दरवाजे पर आया और बोला कि आपके घर से कोई आया है। सौम्या को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था, फिर उसने पूछा कि कौन है ? उसने बताया कि आपके भाई आए हैं। सौम्या कुछ भी समझ नहीं पा रही थी और कहा कि वो कहां हैं ? उसने बताया बाहर खडे हैं मिल लो। सौम्या बाहर पहुंची तो देखा सामने भाई खडे थे। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था, उसके चेहरे पर मुसकान भी थी और आंखों में आंसू भी। शब्द गले तक आ पहुंचे, ऐसा लगा जैसे वो बहुत कुछ कहना चाहती थी लेकिन कह नहीं पा रही थी। कुछ देर की खामोशी के बाद उसने पूछा आप कैसे आ गए ? उन्होंने हंसते हुए कहा कि ये तेरा नहीं मेरा और इस पूरे परिवार का इम्तेहान था। पहले सोचा था कि तुझे बैठाकर घर लौट जाउंगा लेकिन बाद में मन में तेरी परवाह ने मुझे इतना विवश कर दिया कि मैं तेरे पीछे यहां तक आ पहुंचा केवल ये देखने कि तुझे कोई परेशानी तो नहीं हुई। यकीन मानना ये परीक्षा बेहद कठिन थी, शायद जिंदगी की सारी परीक्षाओं से अधिक जटिल, लेकिन खुशी इस बात को लेकर हुई कि इसमें हम सभी पास हो गए क्योंकि भावनाओं ने हमें एक दूसरे से इतना मजबूती से बांधें रखा कि ये मुश्किल सा समय जीना भी कहीं न कहीं जरुरी सा लगा...। आज भी वो बात जब भी याद आती है, मन उस ईश्वर को धन्यवाद भी देता है कि उसने इतना अच्छा भाई और परिवार मुझे दिया है।


कमला शर्मा

अनंत गहराई



तेरी मोहब्बत का,
कुछ यूं हुआ असर,
हम खुद से ज्यादा,
तुझ पर यकीं करने लगे।
कभी-कभी लगता है डर,
तेरे प्यार की गहराई से,
कहीं डूब न जाउं,
प्यार के अहसासों में।
फिर सोचती हूं क्या हुआ ...?
डूब भी गई तो!
रहूंगी फिर भी तेरे प्यार की आगोश में,
हर पल तुझे महसूस करुंगी,
प्यार की इस अनंत गहराई में।


कमला शर्मा

...नन्हीं परी


क्यों कोख में ही
हो जाता भेदभाव
उस अजन्मी बच्ची से
जो कोख से प्रस्फुटित हो .....
अंकुरित होने को है व्याकुल
इस गर्भ गृह से
निकलने की उसकी अभिलाषा
पाना चाहती वो नन्हीं परी
ममत्व की शीतल छाया
उसे रौंद देना चाहता है
ये मानव प्रजाति का ही
संकीर्ण मानसिकता का दानव
क्यों ऐसा घृणित कृत्य कर
खुद का ही परिहास उड़ाता
जिस कोख से सृष्टि रचती
उसी स्त्री पर क्यों..
इतने घातक प्रहार
इस लिंग भेद की खाई ने
बना दी रिश्तों में दीवार
इस खाई में दम घुटता
उस नन्हीं अजन्मी बच्ची का
लेने दो उसे भी सांस
इस खुली स्वछंद हवा में


कमला शर्मा

कर्मपथ


जब भी हो कठिन डगर
न आंको अपने को कमतर
बस धैर्य को बांधे हुए
कर्मपथ पर रहो अडिग
माना बेशकीमती चीजों की
होती है मुश्किल डगर
लेकिन समय बताता
इनकी होती बड़़ी कदर
कमल कीचड़ में खिलता
अपना वजूद बनाए रखता
हीरा कोयले में मिलता
अपनी अलग चमक से
रत्नों में पहचान बनाता
गुलाब कांटों में खिलकर भी
अपनी मुस्कान बनाए रखता
कठिन डगर हौले से कहती
धैर्य है सफर का साथी
नदी का प्रवाह कभी तुमने देखा
पत्थरों से टकराकर बहती
फिर भी कठोरता को छोड़
अपना जल निर्मल ही रखती

कमला शर्मा

Friday 9 June 2017

ये गणित और ये जिंदगी


जिंदगी भी गणित के फार्मूले जैसी ही है, समझ में आ जाए तो आसान है वरना इस उलझन से बाहर निकलना मुश्किल है। जब गणित विषय पढ़ा था तब इतना रोचक कभी नहीं लगा। एक फार्मूला जो मुझे बहुत रोचक लगा उसे आप लोगों से साझा कर रही हूं।
गणित में पढ़ा था कि समान चिन्ह वाली संख्याएं हमेशा जुड़ती हैं (परिणाम धनात्मक ही होता है, चाहे दोनों संख्याएं ऋणात्मक ही क्यों न हो...) और असमान चिन्ह वाली संख्याएं घटती हैं हमेशा (ऋणात्मक) होती हैं और चिन्ह बड़ी संख्या का ही लगता है। ऐसा ही कुछ हम अक्सर जिंदगी में भी महसूस करते हैं। विचारधारा समान हो तो परिणाम हमेशा सकारात्मक (धनात्मक) आता है लेकिन इसके विपरीत यदि असमान विचारधारा जब मिल जाए तो परिणाम नकारात्मक (ऋणात्मक) ही समाने आता है...और अपने-अपने वर्चस्व को श्रेष्ठ बताने की होड़ सी लग जाती है जैसा कि हमने गणित में पढ़ा है कि हमेशा चिन्ह बड़ी संख्या का ही लगता है।
जीवन में समान विचारधारा हमेशा ही श्रेष्ठ होती है और संबंधों में गहरी मिठास का सबब बनती है। मुझे लगता है कि समान और असमान विचारधाराओं का प्रार्दुभाव शिक्षा और ग्रहण करने की क्षमता पर निर्भर करता है...। इस दुनिया में जब बच्चा जन्म लेता है तो आभा मंडल तो लगभग एक समान ही होता है लेकिन जैसे-जैसे उसका विकास होता है वो अपने आप को गढता है, अपने विचारों को परिपक्व करता है....। यही वो दौर होता है जब विचारों में धनात्मक और ऋणात्मक जैसे चिन्हों का कोई असर नहीं होता लेकिन जब हम परिपक्व हो जाते हैं तब हमारा व्यवहार और क्षमता हमें और हमारे विचारों को सीमित कर देते हैं, हम अपने दायरे खुद तय कर लेते हैं कि हमें कहां तक और कैसे सोचना है...। जिंदगी में भी गणित वैसा ही है जैसा किताबों में...बस अंतर इतना है कि गणित में परिणाम हमेशा हमारी समझ पर निर्भर करता है उसे दोबारा सुधारा जा सकता है लेकिन जिंदगी में सुधार के अवसर बेहद सिमट जाते हैं....। ये हमारा बर्ताव ही तय करता है कि हमारी पीढी किस दिशा में जाएगी क्योंकि उसके विचारों में हमारी समझ का हिस्सा कुछ ही मात्रा में सही लेकिन समाहित तो अवश्य होता है...।
कमला शर्मा

Wednesday 7 June 2017

अलबेली बेला

 
मन के अंतस को छूतीं
बूंदों की ये शीतल बेला
गहरे तक छू जातीं ये
बूंदों की अलबेली बेला
गहरे से मन के अंतस में
गहरी सी एक राग सुनाती
प्रकृति ये तुम जैसी सच्ची
नेह की बारिश हमें बताती

कमला शर्मा 

बूंदों का ये नेह...


बारिश की बूंदों में नहाई
ये उनींदी सी, अल्हड़ प्रकृति
नेह के आलिंगन में निखरा
प्रकृति का अल्हड़ सा यौवन
बादलों से अठखेली करके
बारिश का यूं नेह बरसाना
रिमझिम सी बूंदों का ये स्पर्श
अहसासों में भीगता...
प्रकृति का चंचल सा मन
उसका यूं लजाकर
आंखें मूंद लेना...
बारिश की बूंदों का
हौले से नेह गीत सुनाना
प्रेम में समर्पित प्रकृति का
ये निखरा सा यौवन
जैसे कोई नयी-नवेली सी दुल्हन

कमला शर्मा

Monday 29 May 2017

...ये वैकल्पिक और अनिवार्य विषय



कभी-कभी बातों ही बातों में कुछ गहरी सीख मिल जाती है। आज कुछ ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ। मुझे एक परिचित आंटी मिलीं।
मैंने पूछा आंटी आप कैसी हो?
वो बोली- बेटा बस जिंदगी कट रही है।
मैंने कहा क्या हुआ आंटी ....ऐसे क्यों बोल रही हो?
वो बोली- बेटा तुमने वैकल्पिक और अनिवार्य विषय पढ़े होंगे, मैंनें कहा जी आंटी।
वो बोलीं- बस मैं भी वही वैकल्पिक विषय बन कर रह गयी हूं।
मेरी समझ में कुछ नहीं आया मैं बस उन्हें देखती रही।
वो बोली बेटा अनिवार्य विषय मतलब बहुत जरूरी और वैकल्पिक मतलब सिर्फ काम चलाऊ। जब अनिवार्य चीजें मिलने में अड़चनें आती हैं तो तुमने देखा होगा वैकल्पिक का रास्ता अक्सर खुला होता है जिसे हम सिर्फ काम निकालने में इस्तेमाल करते हैं। अनिवार्य विषय हमारी जरूरत होते हैं जिसके लिए हम वैकल्पिक विषय को एक तरफ रख देते हैं...। वो बोलीं वही स्थिति मेरी भी है। ये बोलते हुए एक लम्बी सांस ली और आंटी चुप हो गयीं। कुछ देर की खामोशी के बाद वो पुनः बोली अब ये जिंदगी और रिश्ते भी कुछ इसी तर्ज पर निभाए जाते हैं...।
उनके जाने के बाद मैं सोचने लगी आंटी रिश्तों में आई औपचारिकता को कितनी आसानी से समझा गयीं.......।

कमला शर्मा 

Friday 26 May 2017

...तुम केंद्र हो जीवन वृत्त की


नारी तुम सिर्फ जीवन वृत्त नहीं
इस वृत्त की केंद्र बिंदु हो
चाहे इसके चारों ओर
परिधि की हो लकीरें खीचीं
केंद्र हो फिर भी तुम क्यों
इस परिधि में कैद हो जाती
तुम अपना वजूद समझो तो
जीवन वृत्त विस्तृत कर सकती
परिधि के अंदर सिर्फ तुम नहीं
वृत्त का रूप भी तुम पर है निर्भर
केंद्रबिंदु जब भी डगमगाया
वृत्त ने रूप विकृत ही पाया
समझो अपने अस्तित्व को
परिवर्तन कर अपने अर्क में
परिधि को ही विस्तृत कर दो

कमला शर्मा

---स्मृतियां

मैं अपने स्मृति पटल पर
सहेज लेती हूूं वो सारे पल

जो मैंने महसूस किये
जिंदगी में मुसाफिर बनकर
ये स्मृतियां बातें करती...
गुजरे हुए उन लम्हों की
जो कभी मुझे गुदगुदाती
स्मृतियों के झरोखे से
और कभी विस्मित! हो जाती
अपनी नादान सी बातों से
मेरे स्मृति पटल पर
स्मृतियों के सैलाब हैं ठहरे
जिन्हें सहेजती रहूंगी
मन की किताब में
मन आखर-आखर हो जाएगा।

कमला शर्मा 

Saturday 20 May 2017

तलाश...


हमने अपने से न जाने
कितने ही सवाल किये
जब खुद को टटोला तो
जवाब खुद ब खुद मिल गये
हम वो बनने की कोशिश करते रहे
जो हम कभी थे ही नहीं
खुद की तलाश में दूर तक गये
जब फुर्सत मिली इस दौड़ से
फिर जवाब. कुछ यूं मिले....
ईश्वर ने सबको नवाजा है
किसी न किसी बेशकीमती हुनर से
हमने भी खुद से नजदीकियां बढ़़ायी
अपनी पसंद-नापसंद की तलाश में
खुद को तराशने लगे
फिर हर सवाल के जवाब
अपने पास ही मिल गये

कमला शर्मा

नेह के ये मधुर अहसास


खुद को लिखना चाहा
किताब के पन्नों पर...
अहसास कैसे लिखती
इन कोरे पन्नों पर
शब्द सिमट गये
जज्बातों के असर से
जिन अहसासों को महसूस किया
कैसे लिखती किताब पर
ये अमिट हैं मेरे मन के अंतस में
किताब में लिखे शब्दों का क्या
मिट सकती है स्याही शब्दों की....
फिर सहेजती गई अहसासों को
और इस नेह की खुशबू से
महकती रही मन की किताब पर
शब्दों की पहेली उलझ न जाये
वक्त हाथ से यूं ही निकल न जाये
ये सोच आंखों में ही सहेज लिए
नेह के मधुर अहसास
जब भी आंखें बंद करती
महसूस कर लेती इन लम्हों को
ये कोरे पन्ने कैसे लिख पाएंगे
इन अहसासों के समंदर को

कमला शर्मा

Tuesday 16 May 2017

उम्मीदों के सृजन का सफर...


मैंनें अपनी देह की,
सृजित आत्मा में,
बो के रखे हैं,
उम्मीदों के बीज।
इन्हें सींचती हूं ,
हर रोज, हर पल,
अपने कर्म जल से।
सहेज कर रखती हूं इसे,
जिंदगी के खरपतवार से।
नहीं मुरझाने देती,
उम्मीदों की कोमल कलियों को।
मैं जानती हूं उम्मीद की,
इस कठिन परिभाषा को,
उम्मीद धैर्य बंधाती है,
मंजिल का सफर तय करने में।
कई बार लड़खड़ाते हैं कदम,
उम्मीद टूट जाने पर।
लेकिन जब देखती हूं ,
इस बीज को परिणीत होते
हकीकत के पेड़ में।
मन प्रफुल्लित होता ,
इस पल्लवित बगिया से।
उम्मीद तू जिंदा रहना,
मेरी देह की आत्मा में।
तू है, तो मैं हूं ,
ये सृजन और ये सफर भी ......

कमला शर्मा

Saturday 13 May 2017

मांँ...


मांँ तुझे शब्दों में कैसे व्यक्त करें,
तू अहसासों का समन्दर है।
हम इसमें बूंद भी बन जाएं तो,
इस जिंदगी में तर जाएं।
हम तुझे वर्णो व शब्दों में कैसे रचें,
तुम हमारे जीवन की वर्णमाला हो।
मांँ तूने हमें अपने नेह से सींच,
भावनाओं और अहसासों से,
हमें पल्लवित किया।
दुनिया में खूबसूरत रंगों से,
हमें परिचित करवाया,
तू वृक्ष बन त्याग करती रही,
हमें तपिश भरी धूप में भी,
अपने शीतलता के आंचल से,
ठंडी-ठंडी छांह देती रही।
इस ममत्व का तुझे,
क्या मोल हम दे पाएंगे...?
इसके ऋणी रहकर ही,
हम खुद तर जाएंगे।
मांँ तू इस धरा में,
संपूर्णता का अभिप्राय है।


कमला शर्मा 

...ये साथ तुम्हारा


मैं, मैं न रही, न जाने कब,
मैं और तुम हम बन गए।
बेसुध सी थी, तुमसे संवर गयी,
आंखों में छुपाये थे जो ख्वाब,
तुम उनके हमराज बन गए।
कुछ भी कहे बिना,
मन की बात सुन गए।
अल्फाजों के बिना ही,
अहसासों की किताब बन गए।
तुम अहसासों के घरौंदे को,
नेह से सींचते रहे।
मैं सपने बुनती रही,
तुम उन्हें सजाते रहे।
तुमसे मेरी जिंदगी के,
मायने बदल गए।
जिंदगी के इस सफर में,
साथ-साथ चलते रहे।
सफर के उतार चढ़ाव में,
हम और भी करीब आ गए।
तपिश भरी व्यस्तता के बाद भी,
एक-दूसरे के चेहरे को पढ़ने का,
बखूबी वक्त निकाल लेते।
न तुम कुछ कहते, और न मैं,
फिर भी एक-दूसरे की आवाज सुन लेते।

कमला शर्मा 

Thursday 11 May 2017

....ये अथाह प्रेम

....ये अथाह प्रेम

मन यूं व्यथित हुआ,
इन अहसासों के मंथन में,
कहीं खो गई मन के अंतस में।
एक रिश्ते ने आज मुझे झकझोरा,
सुनकर व्यथा आंखें भर आईं।
एक पति-पत्नी का रिश्ता,
जन्म-जन्म साथ निभाने का,
लेकिन पत्नी की सांसें,
पति से पहले ही गई थीं थम,
इस विरह से पति की आंखें,
बार-बार हो रही थी नम।
इस अथाह प्रेम का,
ऐसा देख विराम!
मन विचलित हुआ और द्रवित भी...।
मन यूं सोचता रहा,
कैसे ये जन्म-जन्म का रिश्ता,
सांसें रुक जाने से सिमट सकता है?
फिर अगले ही पल सोचती,
सिर्फ शरीर अलग हुए हैं,
रिश्ता तो जन्म जन्मान्तर का ही है।
ये हमेशा भावनाओं में, अहसासों में,
हमेशा हर पल,
एक-दूसरे के साथ ही रहेंगे,
विचलित मन की इस कशमकश में,
मन में उठे थे, जो कई सवाल,
फिर अश्रुधारा के साथ,
प्रवाहित हो गए अहसासों में।
मन यूं ही व्यथित हुआ,
इन अहसासों के मंथन में।

कमला शर्मा

नदियों सी गहरी स्त्रियां

नदियों सी गहरी स्त्रियां

स्त्री संवाहक है संस्कृति की,
ये साहिल नहीं नदियों की।
ये जलधारा है निर्मल सी,
जो बहती चलती है निस्वार्थ।
साहिल के दोनों छोरों को,
साथ-साथ सहेजे हुए।
कभी आवेग हिचकोले लेता,
फिर भी बहती निश्छल सी सतह पर।
संस्कृति को सहेजकर,
सृजित करती नई पीढी में संस्कारांे को।
जैसे कई नदियां समाहित हो जातीं,
सागर के गहरे से जल में।
स्त्री यूं घुल-मिल जाती,
संस्कृति और संस्कारों के मेल में।
जैसे नदियां मिल जातीं,
सागर के अनंत प्रेम में।
स्त्री खुद को समर्पित करती,
संस्कारों व संस्कृति के संवहन में।
दोनों ही प्रेम और त्याग का पर्याय हैं,
स्त्री मध्यस्थ होती दो संस्कृतियों की,
नदियां मध्यस्थता करती साहिलों की।



कमला शर्मा

गिल्लू


गिल्लू

मेरे घर के आंगन में,
फुदक-फुदक कर आती गिल्लू।
नन्हें नन्हें हाथों से,
दाना चुगती प्यारी गिल्लू।
अपनी मटकाती आंखों से,
अपनी पूरी फौज बुलाती।
इस गिल्लू की पलटन में,
कबूतर, बटेर, चिड़िया सब साथी।
चिड़िया आती फुर्र से,
मुडेर में रखे पानी में।
छप-छप करके खूब नहाती।
पंख फड़फड़ा कर खूब इतराती,
गरमी के इस मौसम में।
ठंडी-ठंडी राहत पाती,
गिल्लू की इस पलटन से,
अपनी मन की बातें करती।
इस राहत भरी शीतलता से,
सज संवरकर बन-ठन के,
चिडिया उड़ जाती फुर्र से।
गिल्लू भी अपनी पलटन को,
जाने क्या निर्देश देती ?
कैप्टन गिल्लू के पीछे-पीछे,
सारी पलटन चल देती।
मेरे घर के आंगन में..........।

कमला शर्मा

...ये जिंदगी का सफर

...ये जिंदगी का सफर

कुछ उड़ान जिंदगी के लिए,
कुछ जिंदगी उड़ान के लिए,
यूं ही मंजिल की ओर चलते रहे।
कुछ सफर मनचाहा सा,
कुछ अनचाहा सा,
फिर भी सफर तय करते रहे।
मंजिल की तलाश में,
रिश्तों के दायरे सिमट गए।
इन दायरों में जज्बात भी कहीं खो गए,
जिन्हें जरुरत थी हमारी,
उन्हें अकेले छोड़ आए।
अहसासों के इस पतझड़ में,
रिश्ते कितने सूख गए।
जिंदगी की इस उड़ान में,
समय हाथ से फिसलता गया,
मुटठी में भरी रेत की तरह।
हम पढ़ते ही रह गए जिंदगी की किताब,
कीमती रिश्तों के बिना, हम कोरे से रह गए।

(कमला शर्मा)

रिश्ते

रिश्ते

रिश्ते हैं नाजुक सी डोर,
नेह के प्यारे मोती चुनकर,
रिश्तों की हम माला गूंथते।
विश्वास इसे मजबूती देकर,
अहसासों के सुंदर मोती,
एकसूत्र में हमें पिरोते।
रिश्तों की ये नाजुक डोर,
अपनेपन से हमें जोड़ती,
खालीपन की जगह न बचती।
एक-दूजे के मर्म को छूकर,
अंतर्मन में ये बस जाते।
इस नाजुक सी डोर में,
जब भी मोती कहीं बिखरते,
घर के कोनों में खोकर ,
खालीपन की जगह बनाते।
अहसासों के खालीपन में,
रिश्तें भी शिथिल हो जाते।
विश्वास में कभी ढील न देना,
भावनाओं से मजबूती देना।
नेह से रिश्ते तुम सहेजना,
रिश्तों की ये नाजुक डोर,
अहसासों से बांधे रखना।

कमला शर्मा

Tuesday 25 April 2017

मन में ठहरा सा गाँव


आज मेरा मन जा पहुँचा ,
अपने गाँव की ठंडी छांव में।
प्रकृति के हरे भरे आँगन में ,
बीता अपना प्यारा बचपन।
खट्टे मीठे काफल , हिशालु ,
मन को खूब लुभाते।
आज मेरा मन जा पहुँचा ----
घर की मुडेर से दिखती ,
नदियाँ की चंचल जलधारा।
प्रात:काल इस नदियाँ में ,
सूरज की किरणें भी !
कुछ खेल अद्भुत करती।
सूरज अपनी आभा से ,
नदियाँ को उज्ज्वल स्नान कराती।
नदियाँ और सूरज की ,
इस प्यारी अठ्खेली में ---
हम अपनी आँखें मींच लेते ,
इस चकाचौंध सी रोशनी में।
आज मेरा मन जा पहुँचा ----
सांझ होते ही सूरज भी,
अपनी दिनभर की थकन मिटाने ,
सो जाता पर्वतों के आँचल में।
सांझ होते ही नदियाँ की कल-कल भी ,
कुछ नया ,संगीत मधुर सुनाती ।
पक्षी भी एकत्रित हो जाते,
पेड़ों की सुंदर झुरमुट में।
गुंजायमान प्रकृति हो जाती ,
उनकी मधुर आवाजों से।
उन्हें देखकर ऐसा लगता ,
जैसे बातें हो रही हो दिनभर की।
चीड़ के ऊंचे ऊंचे पेड़ों को देखकर लगता ,
जैसे प्रहरी हो , इस हरे भरे जंगल के।
बार बार सरस समीर ,
मन में हिचकोले लेता।
कर देती मन को शीतल ,
गाँव की ठंडी ठंडी छांव।
आज मेरा मन जा पहुँचा ----
बिलखती प्रकृति -----
सुन जरा नादान मनुष्य !
क्या भ्रम के जाले तूने पाले ?
प्रकृति की विनम्रता को ,
दुर्बलता का नाम न दें।
तू अपनी सुख सुविधा में लीन ,
प्रकृति को करने चला विलीन !
सुन जरा नादान मनुष्य .......
प्रकृति के इस मौन को ,
तू बेबसी का नाम न दें।
जब चीखेंगी , ज्वाला बनकर ,
आग ही आग उगलेंगी।
जब रोयेंगी अश्रु धारा बन ,
जल मग्न कर जाएंगी।
इस जल के रौद्र रुप में ,
मानव जाति कहीं खो जायेगी।
सुन जरा नादान मनुष्य ..........
अपनी बुद्धि , विवेक से ,
स्वार्थ की भौतिकता को ,
तू यूं न सींचित कर।
धरती के इस कोमल मन को ,
बार बार आहत न कर।
धरती के इस पावन मन को ,
मानव ने ही , उकसाया हैं।
अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए ,
शीतल , शांत प्रकृति को ,
भौतिकता की भेंट चढ़ाया हैं।

Saturday 22 April 2017

 वो अनुशासन प्रिय चेहरा

हमारी स्मृति में आज भी हमारे गुरुजन बसे हुए है।उनकी स्मृति मात्र से ही उनका व्यक्तित्व, आदर्श, हमारी आँखों के सामने तैरने लगता है। हमारे लिए आज भी वो हमारे आदर्श हैं हमारे लिए सम्माननीय है। आज भी जब उनकी याद आती है तो हम अपने शिक्षकों के बारे में अपने बच्चों को बताने के लिए उतावले हो जाते है।जब भी हमारे शिक्षक हमें कहीं दिख जाते है तो हम उनके चरणों में झुक जाते है और हमें देखकर उनकी आँखों में खुशी झलकने लगती है।ये गुरू शिष्य का रिश्ता अविस्मरणीय होता है। हमें याद है हमारे गुरूजन हमें जहाँ कहीं भी दिख जाते थे तो हम उन्हें देखकर छिप जाते थे। आज भी मेरी स्मृति में वो दिन तरोताजा है , मुझे अब भी याद है राजकीय कन्या इण्टर कालेज में हमारी प्रधानाचार्या सुश्री आनंदी आर्या जी का अनुशासन प्रिय वो चेहरा , वो भाव। उनके नाम से ही मुझे एक वाकया याद आता है, मैं आठवीं कक्षा में पढ़ती थी , मैं अपनी सहेलियों के साथ सर्कस देखने चली गयी। जिस जगह पर सर्कस लगा था वहीं हमारी प्रधानाचार्या जी भी रहती थीं इसी बात को लेकर हम सब के मन में ये डर भी था कि कहीं उनकी नजर हम पर न पड़ जाये लेकिन उस सर्कस देखने के उत्साह को रोक न पाए और नजरें बचाते हुए वहाँ से निकल गये।सर्कस के रोमांचक करतब के साथ साथ दिमाग में प्रधानाचार्या जी का डर भी सताये जा रहा था, खैर सब कुछ ठीक था हमें लगा हम बच गये किसी ने नहीं देखा।दूसरे दिन स्कूल पहुंचे, जब स्कूल में सुबह प्रार्थना समाप्त होने के बाद प्राधानाचार्या जी मंच से बोली - बच्चों कल सर्कस देखने कौन - कौन गया था बस क्या था हमारे चेहरे की तो हवाईया तो उड़ गयी और चुपचाप प्रार्थना की कतार से अलग खड़े हो गये। ऐसे न जाने कितने वाकये हैं जो याद आते हैं। हमने अपने शिक्षकों से बड़ों का सम्मान करना सीखा--। खैर, अब जब शिक्षा के नए रूप में शिक्षक और बच्चों को देखती हूँ तो मन विचलित होता है, बच्चों में इस पवित्र रिश्ते का अंकुरण सूखने लगा है, ये नहीं होना चाहिए ---। ये गहरे चिंतन का विषय है ---।

दहलीज के उस पार 


जब भी कोई लड़की मायके से ससुराल की दहलीज में पदार्पण करती है, उसके मन में सवालों की झड़ी सी लग जाती है। नये रिश्ते, नये लोग, नये रीति रिवाज, नयी जिम्मेदारियाँ न जाने मन में क्या क्या उधेड़बुन चलती है । उसके साथ साथ कुछ मन को उत्साहित करने वाले सपने शायद जो इन जिम्मेदारियों को निभाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जब लड़की इस पवित्र बंधन से जुड़ती है, तो वो सिर्फ एक व्यक्ति से नहीं, कई नये रिश्तों से मिलती है। इस पवित्र रिश्ते की बुनियाद सिर्फ विश्वास और भरोसे से शुरू होती है। जिन लोगों को कभी देखा नहीं, कभी मिले नहीं जिनकी आदतों से परिचित नहीं होते, उनके साथ आकर हमेशा के लिए साथ रहना, तालमेल बैठाना, सबके दिलों में जगह बनाना, ये सब आसान तो नहीं, लेकिन एक व्यक्ति जिसकी अर्धांगिनी बनकर हम इस घर में प्रवेश करते है, उस पर न जाने क्यों एक अटूट विश्वास होता है, एक भरोसा होता है जिससे हम अपनी सारी बातें सांझा करने लगते है, यहाँ पर सभी अपरिचित है किसी से कुछ पूछने में या अपनी बात बोलने में जो संकोच या डर होता है वो डर इनसे नहीं, कुछ तो खास बात है अनजान होने पर भी अपने से ज्यादा भरोसा करने लगते है। हमसफर यदि इस सफर में साथ साथ चले तो ये सफर, ये रिश्ते सब आसान हो जाते है। लेकिन कुछ समय बाद ------ जिस मायके में लड़की तितली सी चंचल , स्वच्छंद अपनी मर्जी से घर के हर कोने में घूमती थी वही मायके की दहलीज न जाने कब अपरिचित सी, अनजान सी लगने लगती है। जिस घर में बचपन बीता, जिस घर के हर एक सामान पर अपना हक जताते थे, वही सामान को लेने से पहले अब पूछने लगते है -------- घर वही, रिश्ता वही लेकिन इस नये रिश्ते के साथ हमारे कुछ अपने दायरे तय हो जाते है, उस बचपन की दहलीज के लिए -----। जिस अनजान दहलीज में पदार्पण किया था, न जाने वो कब , इन खट्टे मीठे रिश्तों के साथ अपनी सी लगने लगती है, पता ही नहीं चला। यहाँ जिम्मेदारियां बोझ नहीं फर्ज में बदल गयी। हमारी पसंद नापसंद न जाने कब इस परिवार के सदस्यों के हिसाब से ढल जाती है। इस बदलाव में भी सुकून है कोई शिकायत नहीं। इन रिश्तों में जीना अच्छा लगने लगता है और इस अनजान सी दुनिया में कब हमारी अपनी एक खूबसूरत सी दुनिया बस जाती है पता ही नहीं चलता ----। 
आलोचक और निंदक 
एक आलोचक किसी भी विषय या दृष्टांत का समग्र निरीक्षण करने के पश्चात उसकी गलतियों या कमियों पर प्रकाश डालता है, उसे उजागर करता है, लेकिन एक निंदक सिर्फ और सिर्फ अपनी निंदा के आवरण से समग्र विषय या दृष्टांत को अंधेरे में छिपा देना चाहता है। निंदक विषय के किसी भी पहलू को समझना ही नहीं चाहता, उसे सिर्फ किसी बात को गलत साबित करना होता है, अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर, लेकिन एक आलोचक कभी भी स्वार्थी नहीं होता वो निष्पक्ष होकर विषय का विश्लेषण करता है, जो हमारी सफलता और विचारों की गहनता के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाता हैं।
अंतर्मन की आवाज 
हम सभी अंतर्मन के द्वंद से अक्सर संवाद करते हैं, इस वार्तालाप में दिमाग अपनी बुद्धिमत्ता के कारण हमारे अंतर्मन की सरल, सौम्य, निश्छल, नि:स्वार्थ और कोमल भावनाओं पर हावी होने लगता हैं। हमारा अंतर्मन हमेशा सही निर्णय लेता है, लेकिन हममें से बहुत कम लोग होते हैं जो अंतर्मन की आवाज सुन पाते हैं, क्योंकि कभी जिम्मेदारी, कभी आर्थिक स्थिति, सामाजिक परिवेश, पारिवारिक वातावरण ये सब हमारे अंतर्मन की आवाज को मन में ही दफन कर देते हैं। हमने देखा है हमारा एक निर्णय , हमारे जीवन में अहम भूमिका निभाता है।हम इस अंतर्मन के निर्णय को अक्सर स्वार्थ व बाहरी परिवेश के अधीन होकर मन के किसी अंधेरे कोने में छिपा लेते है, लेकिन मन के अंधेरे कोने में छिपे इस निर्णय से हम अक्सर वार्तालाप करते है और कहीं न कहीं उस निर्णय को न मानने पर पछतावा भी -----।हम अक्सर अपने बच्चों के बेहतर भविष्य को लेकर इतने चिंतित हो जाते हैं कि उस बेहतर भविष्य के निर्माण करने के लिए उनको जिंदगी की तेज रफ्तार में एक धावक की तरह दौड़ में शामिल कर देते है, इस भागमभाग में हम उनकी रुचि, खुशी सब कुछ भूलकर कहीं पीछे छोड़ आते है----------------------------। हम सोचते है हम माँ- बाप है, हमसे बेहतर बच्चों के बारे में और कौन सोच सकता है -------------------? बात तो सही है, माँ- बाप से बेहतर कोई भी नहीं, लेकिन इस दौड़ में हम अपने बच्चों की कोमल भावनाओं को रौंद देते है। उस बेहतरी के जुनून में इस ओर ध्यान ही नहीं जाता कि बच्चा क्या चाहता है -----------------? एक मासूम सा बच्चा हमारी खुशी के लिए वो सब करने लगता है जो हम चाहते है, हमारे पसंदीदा विषय चुन लेता है, और उसी को अपना कैरियर बनाने की कोशिश भी करता है लेकिन कभी - कभी ये अंतर्द्वंद्व मस्तिष्क पर हावी होने लगता है जो गलत रास्ते आत्महत्या जैसी घटनाओं के लिए प्रेरित करता है। क्या ये सही है ----? हमें इस अंतर्मन की आवाज को सुनकर अपने को और अपने बच्चों को इस अंतर्द्वंद्व के चक्रव्यूह से बाहर निकालना होगा, तभी हम एक बेहतर समाज का निर्माण कर पायेंगे, क्योंकि दबाव और अरुचिपूर्ण कार्य कभी भी मानसिक संतुष्टि नहीं देता, हमारा दबाव बच्चों को उच्च सामाजिक स्तर, मजबूत आर्थिक स्थिति दे सकता है, लेकिन आत्म संतुष्टि तो रुचिकर कार्य से ही मिल सकती है, ये वो खुशी है जिसे हम उनके चेहरों पर महसूस कर सकते हैं। इस रुचि व अरुचि के बीच के द्वंद्व को समाप्त करके, अपने बच्चों के सपनों को आकार देकर, शायद इन सपनों को हमारे सोच से भी बेहतर आकार मिल जाए।

ये कैसी दौड़ ...........

योग्यता या श्रेष्ठता का आकलन अंकों के आधार पर कैसे किया जा सकता है ?
अक्सर परीक्षाओं की शुरुआत ही अंको की प्रतिशतता को लक्ष्य बनाकर होती है। परीक्षार्थियों का केंद्र बिंदु विषय वस्तु में ज्ञान प्राप्ति न होकर, अधिक से अधिक अंक प्राप्त करने पर केन्द्रित होता है।
येन- केन प्रकारेण अंकों की अधिकता भी प्राप्त हो जाती है और श्रेष्ठता सूची में स्थान भी प्राप्त हो जाता है।क्या विषय वस्तु के ज्ञान के बिना ये श्रेष्ठता या योग्यता का आंकलन सही है .....................?
यही अंकों की श्रेष्ठता के आधार पर उसका चयन किसी कार्यक्षेत्र में भी हो जाता है लेकिन ......................
क्या वो उस कार्य को उतनी ही निष्ठा और निपुणता से कर पाएगा, जिसका उसे ज्ञान ही नहीं ...........?
ये कार्य उसके लिए सिर्फ और सिर्फ जीविकोपार्जन और द्रव्य कमाने का साधन मात्र बन जाता है।
मेरा मानना है जिसके लिए शायद वह अकेले ही जिम्मेदार नहीं, अपितु उसके साथ - साथ हमारी शिक्षा नीति और समाज भी जिम्मेदार है , क्योंकि हमारी शिक्षा नीति और समाज का नजरिया ही उसे अंकों की दौड़ में शामिल होने के लिए विवश करता है। 
हम माता -पिता भी कम जिम्मेदार नहीं है.................
परिवार का बच्चों पर इंजीनियर, डाक्टर या प्रशासनिक अधिकारी बनने का सपना थोप दिया जाता है, इससे नीचे की बात तो जैसे कोई अपराध हो।
हम जैसे बच्चों को इन सपनों को पूरा करने का संसाधन मान चुके हैं , जब तक वही बच्चा अपने रुचिकर कार्य करने के लिए सक्षम और स्वतंत्र होता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है क्योंकि तब तक वो इस कार्य प्रणाली का हिस्सा बन चुका होता है।
व्यक्ति सोचने लगता है जीऊँगा एक दिन अपने सपनों के साथ, लेकिन न वो एक दिन आता है और न वो सपना पूरा होता है, फिर उसी अधूरे सपने को अपने बच्चों पर थोपने लगता है ...............और उसी एक परम्परा का हिस्सा हो जाता है।
प्यारी बेटियाँ ------
ओह ! मेरी प्यारी परियों ,
तुम दोनों की दिनभर नादानी।
भर देती मुझमें हैरानी !
जब तुम रहती मेरे आस पास ,
करती परेशान तुम्हारी शैतानी।
जब भी बैठती ये मेरे साथ ,
पूछती मेरे बचपन की बात।
अक्सर पूछती मेरे स्कूल की बातें ,
करती दोनों इतनी बातें ,
वो टीचर , मैं बच्ची बन जाती।
बात अंग्रेजी विषय की होती ,
पूछती कब पढ़ा ये विषय ?
मेरा जवाब छठी कक्षा होता।
यकीन नहीं दोनों को होता ,
देखती एक दूसरे की ओर ,
फिर हँसती दोनों जोर जोर से।
दोनों में से एक, सवाल ये करती ,
जब सच है ये बात , फिर हमें पढ़ाती कैसे आप ?
मैं ये सब सुनकर हँस देती ,
प्यार से उनको गले लगाती।
इस स्नेह के आँचल में , 
सवाल कहीं छूमंतर हो जाता।
उन दोनों की इस मस्ती में ,
मैं खो जाती अपने बचपन में।
दोनों आती मेरे पास ,
फिर होती आगे की बात -------
उनके होते इतने सवाल ,
न जाने कोई उनके जवाब।


संदेश


उगते सूरज ने सिखाया,
कर्तव्य पथ पर चलते रहना।
सूरज की तपिश ने दिया,
मेहनतकश बनने का संदेश।
मेहनत की गरमी में जलकर,
दुनिया को रोशन करना।
बादलों, आँधी ने दिया,
कर्तव्यपथ पर बाधाओं का संदेश।
घनेरे बादलों के बीच भी,
अपने पथ पर डटे रहना।
देता है अपना वजूद बनाए रखने का संदेश।
ढलते सूरज ने सिखाया,
विनम्र भाव से शीश झुकाना।

सुनिए तो जरा------

हम जितना बेहतर बेटियों को बनाएंगे, वो उतना ही बेहतर समाज हमें देंगी। बेटियों को लेकर आज भी सोच का दायरा सीमित है, आज बेटियाँ शिक्षित और आत्मनिर्भर तो हो गयी हैं, लेकिन फिर भी घर से बाहर निकलते ही उनके मन में एक डर और भय का अन्यास ही जन्म हो जाता है। समाज में व्याप्त बुराइयों को लेकर मन में एक उधेड़बुन सी चलती रहती है और हर रोज मानसिक रूप से कहीं न कहीं प्रताड़ित होती हैं। आज हम बेटियों को बेहतर शिक्षा और सुख- सुविधाएं देने में कहीं भी कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं, उसके बावजूद भी बेटियाँ हमारी आँखों में, हमारे मन के किसी कोने में कुछ ऐसा तलाशती हैं, शायद जो इन सुख- सुविधाओं से कहीं ऊपर है -------------।

अक्सर देखा जाता है कि जब बेटियाँ घर से बाहर पढ़ने के लिए कालेज, ट्यूशन या नौकरी के लिए निकलती हैं, तो उसके साथ होने वाले अभद्र व्यवहार, छेड़खानी या गंदे कमेन्ट उसे मानसिक रुप से परेशान करते है, और इस पीड़ा को वो अपने परिवार को बताना भी चाहती हैं, लेकिन कहीं न कहीं इस बात का डर भी उसे सताता है कि घरवाले भी उसे ही दोषी बताएंगे। यही डर उसे अपने साथ हो रहे गलत व्यवहार को अकेले सहने को मजबूर करता है और जो अपराध उसने किया ही नहीं उसकी भागीदार बन जाती है।यहाँ आकर उसे लड़की होने का अफसोस होता है।
इस डर और अपनी बात खुलकर कहने का जो संकोच उसके मन में चलता है, शायद उसके जिम्मेदार भी हम ही हैं। बेटियों को सिर्फ सुख-सुविधाएं और उच्च शिक्षा देना ही हमारा फर्ज नहीं है, उसे जरूरत है हमारे साथ की, उसके साथ समय बिताने की, उसके साथ मित्रतापूर्ण व्यवहार की, उसके बातों को समझने की।
बेटियाँ सिर्फ माता -पिता का ही नहीं , हमारे समाज का भी गुरूर हैं, स्वाभिमान हैं। बेटियाँ हमारी संस्कृति की संवाहक हैं, ये दो परिवारों को जोड़ने की कड़ी हैं।हम बेटियों को जो शिक्षा और संस्कार देते हैं उससे वो एक समाज का, युग का निर्माण करती है।

Saturday 8 April 2017

प्रेम की अनंत गहराई एक रिश्ता बहुत करीब से देखा हुआ, वाकया बहुत छोटा है लेकिन प्रेम में विश्वास को बनाए रखने के लिए भावनाओं से सराबोर। मैं यहाँ अनंत प्रेम को शब्दों में समेटने की कोशिश कर रही हूँ, मैं जानती हूँ , प्रेम में किसी शब्द या बाहरी आवरण के लिए कोई जगह नहीं है। फिर भी ------ वैवाहिक जीवन की शुरुआत ही विश्वास से होती है।ऐसे ही इन दोनों ( पति पत्नी ) की भी ------ विश्वास और भरोसे के साथ दोनों का प्रेम समय के साथ साथ और भी अधिक गहरा होता गया, इस प्रेम की तरह परिवार की जिम्मेदारियां भी बढ़ने लगी। इस जिम्मेदारी के चलते -चलते दोनों को अलग अलग स्थान पर नौकरी करनी पड़ी। पत्नी बच्चों के साथ रहकर और पति परिवार से दूर रहकर, समय बीत रहा था, दोनों के प्रेम करने तरीके बदल गये, लेकिन उस प्रेम में अब पहले से भी कही अधिक गहराई और अपनापन था, दोनों का एक दूसरे के लिए सम्मान था। इस भागदौड़ और व्यस्तता के बाद भी उन दोनों में एक चीज कभी नहीं बदली, वो था उन दोनों का प्रेम और भरोसा। दोनों अपनी व्यस्त दिनचर्या में से भी, समय से कुछ पल अपने लिए चुरा लेते थे। दोनों के कार्यक्षेत्र की दिनचर्या बिल्कुल विपरीत थी लेकिन इसके बावजूद भी दोनों का प्रेम और भरोसा चरमबिंदु पर था। पत्नी की दिनचर्या का हिस्सा था पति को फोन करके उठाना और दिनभर की व्यस्तता के बाद रात को पति के फोन का इंतजार करना, क्योंकि दोनों का कार्यक्षेत्र, दिन में फुर्सत से बात करने की इजाज़त नहीं देता था। वही पति की दिनचर्या में देर रात से लौटने पर सबसे पहले पत्नी से फोन पर बात करना दिनचर्या का हिस्सा था, जितना इंतजार पत्नी को फोन आने का होता था, उतनी ही बेसब्री पति को फोन करने की। ये सिलसिला चलता रहा। एक दिन पत्नी दिन भर की भागदौड़ से शायद कुछ ज्यादा ही थक गयी थी, इंतजार कुछ ज्यादा ही लम्बा लगने लगा था, घड़ी की टिक टिक बार बार उसका ध्यान अपनी ओर केंद्रित कर रही थी, तभी एक बजे के आसपास पति का फोन आता है, बातों का सिलसिला शुरू हो जाता है -----------। अगले दिन सुबह फिर वही दिनचर्या शुरू हो जाती है पत्नी, पति को उठाने के लिए फोन निकालती है, तो नजर फोन के मैसेज पर पड़ती है जिस पर Sorry लिखा हुआ था, पत्नी को कुछ भी समझ में नहीं आया और उसने तुरंत पति को फोन लगाया। पति फोन पर पत्नी से बोला - तुम ठीक हो। पत्नी ने हाँ में जवाब दिया, फिर बोली आपने Sorry का मैसेज क्यों किया था, पति बोलता है - कल रात बात करते समय तुम कुछ बोल नहीं रही थी, मैं बहुत देर तक तुम्हारे हाँ और ना के बिना बात करता रहा। फिर मुझे लगा शायद बात करते करते तुम्हें मेरी किसी बात से दु:ख पहुंचा हो। पत्नी ये सब सुनकर नि:शब्द होकर अश्रुधारा में प्रवाहित हो गयी और फिर अपने को संभालते हुई बोली - मैं कल थकान के कारण आपकी बात नहीं सुन पायी थी और कब सो गयी, पता ही नहीं चला। आप इस बात को लेकर रात भर परेशान रहे और Sorry बोलने लगी, लेकिन इन दोनों के प्रेम के बीच इस शब्द के लिए कोई जगह नहीं थी ------------ । इस वाकये को लिखते समय मेरी आँखों में आँसू रुक न पाए। वाकई प्रेम में दूरियाँ मायने नहीं रखती, ये तो भावनाओं का अतिरेक है, प्रेम नि:शब्द है
मुस्कान हमारी जिंदगी का एक खूबसूरत सा तोहफा है , लेकिन कई बार हम सोचते है कि हमारे पास मुस्कराने के लिए कोई वजह भी तो नहीं, इस वजह को ढूंढते -ढूंढते हम आज (वर्तमान ) के खूबसूरत लम्हों को जीना भूल जाते है। ये भूल जाते है कि हमारे चेहरे की मुस्कान किसी को नई ऊर्जा और उत्साह देती है।इस मुस्कान में कुछ तो जादू है , जो पल भर में हमारी बहुत सारी परेशानियों को छूमंतर कर देती है।जिंदगी का हर एक पल बहुत खूबसूरत है , उस पल को हमें समय से चुराना है। इस मुस्कान को बरकरार रखने के लिए छोटी -छोटी खुशियाँ तो प्रत्येक दिन हमारे आँगन में दस्तक देती हैं, बस उन्हें सहेजने का हुनर सीखना है, बड़ी -बड़ी खुशियों की तलाश में आज की खुशियों को दाव पर लगाना कहाँ की अक्लमंदी है ? इसीलिए हर पल , हर लम्हे को मुस्कुराते हुए जीना ही जिंदगी है। भविष्य की चिंता करना अच्छी बात है, लेकिन चिंता की चिता में हर पल जलना ठीक है क्या ? मुस्कुराते चेहरे हमेशा खूबसूरत लगते है। आप भी जिंदगी की इन छोटी -छोटी खुशियों को बटोर लीजिए, कहीं देर न हो जाए। बस मुस्कराने की वजह अपने आप ही मिल जायेगी

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