मैंनें अपनी देह की,
सृजित आत्मा में,
बो के रखे हैं,
उम्मीदों के बीज।
इन्हें सींचती हूं ,
हर रोज, हर पल,
अपने कर्म जल से।
सहेज कर रखती हूं इसे,
जिंदगी के खरपतवार से।
नहीं मुरझाने देती,
उम्मीदों की कोमल कलियों को।
मैं जानती हूं उम्मीद की,
इस कठिन परिभाषा को,
उम्मीद धैर्य बंधाती है,
मंजिल का सफर तय करने में।
कई बार लड़खड़ाते हैं कदम,
उम्मीद टूट जाने पर।
लेकिन जब देखती हूं ,
इस बीज को परिणीत होते
हकीकत के पेड़ में।
मन प्रफुल्लित होता ,
इस पल्लवित बगिया से।
उम्मीद तू जिंदा रहना,
मेरी देह की आत्मा में।
तू है, तो मैं हूं ,
ये सृजन और ये सफर भी ......
कमला शर्मा
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