बिलखती प्रकृति -----
सुन जरा नादान मनुष्य !
क्या भ्रम के जाले तूने पाले ?
प्रकृति की विनम्रता को ,
दुर्बलता का नाम न दें।
तू अपनी सुख सुविधा में लीन ,
प्रकृति को करने चला विलीन !
सुन जरा नादान मनुष्य .......
प्रकृति के इस मौन को ,
तू बेबसी का नाम न दें।
जब चीखेंगी , ज्वाला बनकर ,
आग ही आग उगलेंगी।
जब रोयेंगी अश्रु धारा बन ,
जल मग्न कर जाएंगी।
इस जल के रौद्र रुप में ,
मानव जाति कहीं खो जायेगी।
सुन जरा नादान मनुष्य ..........
अपनी बुद्धि , विवेक से ,
स्वार्थ की भौतिकता को ,
तू यूं न सींचित कर।
धरती के इस कोमल मन को ,
बार बार आहत न कर।
धरती के इस पावन मन को ,
मानव ने ही , उकसाया हैं।
अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए ,
शीतल , शांत प्रकृति को ,
भौतिकता की भेंट चढ़ाया हैं।
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