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Wednesday 28 June 2017

आखिर कब तक...



यात्रा के दौरान मिले खट्टे-मीठे अनुभव जहां सफर को आसान बनाते हैं वहीं कुछ स्मृतियां हमारे जेहन में रह जाती हैं। ऐसा ही कुछ यात्रा वृतांत आप लोगों से शेयर कर रही हूं। निजामुद्दीन स्टेशन से जैसे ही ट्रेन में चढ़ी और अपनी सीट पर जाकर बैठी तभी एक महिला मेरे सामने वाली सीट पर आकर बैठ गई। धीरे-धीरे हम दोनों में बातों का सिलसिला शुरु हुआ और जैसा अक्सर हम किसी से मिलने पर औपचारिक बातें करते हैं वैसी ही कुछ हमारे बीच हुइंर् इन्हीं बातों के दौरान महिला ने पूछा- आपको कहां जाना है? मैंने कहा नागपुर। वो महिला बोली- ओह मुझे भी नागपुर ही जाना है। इन्हीं बातों के दौरान महिला ने घर, परिवार, बच्चों के बारे में पूछ लिया जैसे ही मैंने बताया कि मेरी जुड़वा बेटियां हैं तो महिला ने बड़े ही आश्चर्य से कहा ओह...! फिर बोली- काश एक बेटा और एक बेटी हो जाती तो फैमिली कम्पलीट हो जाती। खैर, ईश्वर की मर्जी के आगे किसकी चलती है, मुझे उस महिला की सहानुभूतिपूर्ण बातों से ऐसा लगा जैसे मेरे साथ कोई घटना घट गई हो और वो दुख प्रकट कर रही हो। खैर मैं उसकी बातें सुनकर धीरे से मुसकुराई और उसकी बातों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की लेकिन प्रतिक्रिया नहीं देने का ये मतलब कतई नहीं था कि मैं उसकी बातों से सहमत थी। मैं मन ही मन में सोचने लगी जो महिला वेषभूषा, रहन-सहन के तौर तरीके से आधुनिक प्रतीत हो रही है वो ऐसी बातें कैसे कर सकती है। बाहरी स्वरुप आधुनिकता से लबरेज लेकिन मानसिक स्तर इतना संकीर्ण कैसे हो सकता है ?
ये बात मेरे मन में गहरे बस गई थी। मैंने बातों ही बातों में पूछा क्या आप नौकरी करती हैं ? महिला ने बड़ी ही उत्सुकता में हां में जवाब दिया और बोली कि हम महिलाएं चूल्हा-चौका करने के लिए ही थोड़ी बनी हैं। हमें भी अपनी जिंदगी जीने का अधिकार है। हम पुरुषों से किसी भी तरह कमजोर नहीं हैं। मैंने कहा- आप बिलकुल सही कह रही हैं लेकिन इसके बावजूद भी हमारे समाज में लड़कों को ही प्राथमिकता दी जाती है। परिवार में सिर्फ लड़कियों के होने से परिवार को संपूर्ण नहीं माना जाता लेकिन इसके विपरीत कभी भी सुनने में नहीं आया कि बेटी के बिना परिवार अधूरा सा लगता है। बेटियों के बिना समाज और परिवार पूर्ण है क्या ? क्यों यहां आकर सोच संकीर्ण हो जाती है ?
मानव को बौद्धिक स्तर पर श्रेष्ठ माना गया है, वो श्रेष्ठ है भी, लेकिन इन्हीं में से ऐसे उदाहरण भी मिल जाते हैं जो अपनी आवश्यकताओं और सुविधाओं के अनुसार रीतियों, परम्पराओं और स्वार्थ पूर्ति के लिए समय-समय पर अपनी वैचारिक स्थिति में परिवर्तन करते रहते हैं और दोगले व्यवहार के शिकार भी बन जाते हैं। कई बार सुनने में आता है कि बेटे को लेकर घर-परिवार या समाज का दबाव महिलाओं पर अत्यधिक हो जाता है जो सही नहीं है। महिलाओं को भी अपने जेहन में ये बात रखनी चाहिए कि हम वही स्त्री हैं जिन्होंने आत्मनिर्भर बनने के लिए घर की दहलीज पार करके अपने अधिकारों को समझा और आर्थिक रुप से आत्मनिर्भर बनीं। दुख तो तब अधिक होता है कि जब कुछ महिलाएं ही इस भेद को गहरा कर देती हैं, वे खुद किसी की बेटी रही होंगी, बावजूद इसके बेटा-बेटी वाली बातें करना अशोभनीय प्रतीत होता है। मुझे लगता है कि इसका दोषारोपण घर, परिवार एवं समाज पर कैसे कर सकते है। इस बात पर मैं कतई सहमत नहीं हूं...।
महिला मेरी बात सुनकर असहज सी हो गई...। उसके बाद एक लंबा मौन छा गया, रेल अपनी गति से सफर तय करती जा रही थी लेकिन एक सवाल मेरे मन में कहीं ठहर सा गया था...जिनका जवाब मैं पूरे रास्ते खोजने का प्रयास करती रही।

कमला शर्मा

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