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Friday 24 September 2021

स्मृतियों के झरोखे से

मैं अपने स्मृति पटल पर
सहेज लेती हूूं वो सारे पल

जो मैंने महसूस किये
जिंदगी में मुसाफिर बनकर
ये स्मृतियां बातें करती...
गुजरे हुए उन लम्हों की
जो कभी मुझे गुदगुदाती
स्मृतियों के झरोखे से
और कभी विस्मित! हो जाती
अपनी नादान सी बातों से
मेरे स्मृति पटल पर
स्मृतियों के सैलाब हैं ठहरे
जिन्हें सहेजती रहूंगी
मन की किताब में
मन आखर-आखर हो जाएगा।

कमला शर्मा 

Saturday 6 February 2021

नदी तुम्हें ठहरना होगा

 



नदी तुम्हें ठहरना होगा

इस धरा को दरकने से बचाने के लिए

तुम्हें प्रवाहित होना होगा

संस्कृति के संचरण के लिए।

तुम्हें अपनी नमी से 

बचाना होगा वैचारिक हरापन

और सिंचित करनी होगी

भावनाओं की जडें़

जिनसे पल्लवित होगी

नवकोपलें अहसासों व अपनेपन की।

नदी! तुम्हारा यूं, दोनों छोरों को थामे हुए चलना

जोडे़गा रिश्तों को पीढ़ी दर पीढ़ी।

तुम्हारी ये निरन्तरता प्रेरित करेगी

कठिन समय में भी, तरंगित व उर्जित होने के लिए

हां, नदी! तुम्हें ठहरना होगा

उम्मीदें के सृजन को बचाने के लिए।



Tuesday 28 July 2020

बारिश

बारिश की इन बूंदों को
सहेज लेना चाहती हूँ
अपनी हाथों की अंजुली में
आने वाली पीढी के लिए
लेकिन कितना अजीब है न !!
ऐसा सब सोचना...।
समय के साथ-साथ
विचारों में परिवर्तन होना
स्वाभाविक है ना...।
अपने बचपन में अक्सर
बारिश में खड़े होते थे
दोनों हाथ फैलाकर...
और पानी के प्रवाह में
बहती थी हर घर के आगे से
कागज की कश्ती....।
और मिट्टी की उस
सौंधी खूशबू में
सुगंधित होता था
नादान बचपन
लेकिन ! आज...
वो नादान सा बचपन
झांक रहा है खिड़की से
उन नन्हीं बूंदों को...
अकुलाई सी नजरों से।
डाँ. कमला शर्मा

Saturday 13 January 2018

कोहरे सी जिंदगी जिंदगी के कोहरे


कोहरे की घनी चादर
बताती है
जिंदगी कोहरे सी है और कोहरे जिंदगी से।
बेहद सतही जीवन है
इस श्वेत घुम्मकड़ का।
ये हमें पार देखने की इजाजत नहीं देता
ये हमें केवल अपने को ही
समझने का सबक देता है।
कोहरे सी जिंदगी की एक उम्र होती है
लेकिन
जिंदगी के कोहरे ताउम्र साथ चलते हैं।
कोहरे हमें सिखलाते है
कोहरे हमें उलझाते है
कोहरे हमें धुंध का मर्म समझाते हैं।
ये हमें श्वेत और निर्मल हो जाने के बीच
की आदमीयत से भी परिचित करवाते हैं।
कोहरे यदि समझाते हैं तो बेहतर हैं
लेकिन
वे समझ आते हैं तो मुश्किल हैं।

कमला शर्मा

एक टुकड़ा धूप



मैं सहेज लेना चाहती हूं
अपने हिस्से की 
धूप का एक टुकड़ा
जब भी कभी रिश्तों पर
जम जाएगी बर्फ की 
ठंडी सी परत
इस धूप के टुकड़े से
पिघला लिया करूंगी
जमी हुई इस परत को
इस ऊर्जित टुकड़े से
संचारित हो उठेगी
भावनाओं की तंत्रिकाएं
और ये पिघली हुई देह
सराबोर हो जाया करेंगी
रिश्तों की धूप में

कमला शर्मा

...एक नई सुबह



कोहरे के इस आवरण ने
जैसे धुपा लिया हो प्रकृति का
खूबसूरत सा सौन्दर्य ......
ये शबनम की बूंदे
जैसे बयां कर रही हो
प्रकृति के विरह की दास्तां
इस घुप्प अंधेरे में
जैसे बहा रही हो
प्रकृति अश्रु्र धारा
लेकिन एक भरोसा है
फिर एक नई सुबह 
एक नई उम्मीद के साथ
रश्मि रथ में सवार
एक राजकुमार.....
अपने ओजस्वी तेज से
भेदते हुए इस धुंध को
बिखेर देता है चहुंओर
अपनी ओजस्वी आभा को
और इस तेज के स्पर्श से ही
निखर उठता है प्रकृति का
ये लावण्य सा यौवन
और ये धुंध सी विरह की पीड़ा
परिणीत हो जाती है.....
मिलन की मधुर
स्वर्णिम बेला में...।

कमला शर्मा

Friday 18 August 2017

ये अहसासों से सृजित देह


इस माटी की देह में
जिन अहसासों ने....
सांसों में धड़कन
रूह में जान डाली।
वे अहसास न जाने क्यों
लड़खड़ाते से नजर आने लगे
फिर से ये सृजित देह
न जाने क्यों...
अहसासों के बिना
बंजर सी, खुरदरी लगने लगी।
फिर से ये बेजान सी
माटी की मूरत में ढलने लगी।
भावनाओं के खाद-पानी बिना
रिश्ते सूखकर अपनों से ही
बिछड़ने लगे....
रिश्तों के दरकने से
चरमराती आवाजें भी
मौन हो गईं...।
न किसी की वेदना में
अब द्रवित होते हैं मन
न खुशी से प्रफुल्लित ही।
...फिर से ये सृजित देह
माटी के निष्प्राण टीले में
विघटित होने लगी है।
और यहीं कहीं दफन हो गई
अहसासों की अनमोल धरोहर।


कमला शर्मा

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