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Saturday 22 April 2017

सुनिए तो जरा------

हम जितना बेहतर बेटियों को बनाएंगे, वो उतना ही बेहतर समाज हमें देंगी। बेटियों को लेकर आज भी सोच का दायरा सीमित है, आज बेटियाँ शिक्षित और आत्मनिर्भर तो हो गयी हैं, लेकिन फिर भी घर से बाहर निकलते ही उनके मन में एक डर और भय का अन्यास ही जन्म हो जाता है। समाज में व्याप्त बुराइयों को लेकर मन में एक उधेड़बुन सी चलती रहती है और हर रोज मानसिक रूप से कहीं न कहीं प्रताड़ित होती हैं। आज हम बेटियों को बेहतर शिक्षा और सुख- सुविधाएं देने में कहीं भी कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं, उसके बावजूद भी बेटियाँ हमारी आँखों में, हमारे मन के किसी कोने में कुछ ऐसा तलाशती हैं, शायद जो इन सुख- सुविधाओं से कहीं ऊपर है -------------।

अक्सर देखा जाता है कि जब बेटियाँ घर से बाहर पढ़ने के लिए कालेज, ट्यूशन या नौकरी के लिए निकलती हैं, तो उसके साथ होने वाले अभद्र व्यवहार, छेड़खानी या गंदे कमेन्ट उसे मानसिक रुप से परेशान करते है, और इस पीड़ा को वो अपने परिवार को बताना भी चाहती हैं, लेकिन कहीं न कहीं इस बात का डर भी उसे सताता है कि घरवाले भी उसे ही दोषी बताएंगे। यही डर उसे अपने साथ हो रहे गलत व्यवहार को अकेले सहने को मजबूर करता है और जो अपराध उसने किया ही नहीं उसकी भागीदार बन जाती है।यहाँ आकर उसे लड़की होने का अफसोस होता है।
इस डर और अपनी बात खुलकर कहने का जो संकोच उसके मन में चलता है, शायद उसके जिम्मेदार भी हम ही हैं। बेटियों को सिर्फ सुख-सुविधाएं और उच्च शिक्षा देना ही हमारा फर्ज नहीं है, उसे जरूरत है हमारे साथ की, उसके साथ समय बिताने की, उसके साथ मित्रतापूर्ण व्यवहार की, उसके बातों को समझने की।
बेटियाँ सिर्फ माता -पिता का ही नहीं , हमारे समाज का भी गुरूर हैं, स्वाभिमान हैं। बेटियाँ हमारी संस्कृति की संवाहक हैं, ये दो परिवारों को जोड़ने की कड़ी हैं।हम बेटियों को जो शिक्षा और संस्कार देते हैं उससे वो एक समाज का, युग का निर्माण करती है।

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