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Tuesday 25 April 2017

मन में ठहरा सा गाँव


आज मेरा मन जा पहुँचा ,
अपने गाँव की ठंडी छांव में।
प्रकृति के हरे भरे आँगन में ,
बीता अपना प्यारा बचपन।
खट्टे मीठे काफल , हिशालु ,
मन को खूब लुभाते।
आज मेरा मन जा पहुँचा ----
घर की मुडेर से दिखती ,
नदियाँ की चंचल जलधारा।
प्रात:काल इस नदियाँ में ,
सूरज की किरणें भी !
कुछ खेल अद्भुत करती।
सूरज अपनी आभा से ,
नदियाँ को उज्ज्वल स्नान कराती।
नदियाँ और सूरज की ,
इस प्यारी अठ्खेली में ---
हम अपनी आँखें मींच लेते ,
इस चकाचौंध सी रोशनी में।
आज मेरा मन जा पहुँचा ----
सांझ होते ही सूरज भी,
अपनी दिनभर की थकन मिटाने ,
सो जाता पर्वतों के आँचल में।
सांझ होते ही नदियाँ की कल-कल भी ,
कुछ नया ,संगीत मधुर सुनाती ।
पक्षी भी एकत्रित हो जाते,
पेड़ों की सुंदर झुरमुट में।
गुंजायमान प्रकृति हो जाती ,
उनकी मधुर आवाजों से।
उन्हें देखकर ऐसा लगता ,
जैसे बातें हो रही हो दिनभर की।
चीड़ के ऊंचे ऊंचे पेड़ों को देखकर लगता ,
जैसे प्रहरी हो , इस हरे भरे जंगल के।
बार बार सरस समीर ,
मन में हिचकोले लेता।
कर देती मन को शीतल ,
गाँव की ठंडी ठंडी छांव।
आज मेरा मन जा पहुँचा ----

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