मैं, मैं न रही, न जाने कब,
मैं और तुम हम बन गए।
बेसुध सी थी, तुमसे संवर गयी,
आंखों में छुपाये थे जो ख्वाब,
तुम उनके हमराज बन गए।
कुछ भी कहे बिना,
मन की बात सुन गए।
अल्फाजों के बिना ही,
अहसासों की किताब बन गए।
तुम अहसासों के घरौंदे को,
नेह से सींचते रहे।
मैं सपने बुनती रही,
तुम उन्हें सजाते रहे।
तुमसे मेरी जिंदगी के,
मायने बदल गए।
जिंदगी के इस सफर में,
साथ-साथ चलते रहे।
सफर के उतार चढ़ाव में,
हम और भी करीब आ गए।
तपिश भरी व्यस्तता के बाद भी,
एक-दूसरे के चेहरे को पढ़ने का,
बखूबी वक्त निकाल लेते।
न तुम कुछ कहते, और न मैं,
फिर भी एक-दूसरे की आवाज सुन लेते।
कमला शर्मा
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