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Monday, 29 May 2017

...ये वैकल्पिक और अनिवार्य विषय



कभी-कभी बातों ही बातों में कुछ गहरी सीख मिल जाती है। आज कुछ ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ। मुझे एक परिचित आंटी मिलीं।
मैंने पूछा आंटी आप कैसी हो?
वो बोली- बेटा बस जिंदगी कट रही है।
मैंने कहा क्या हुआ आंटी ....ऐसे क्यों बोल रही हो?
वो बोली- बेटा तुमने वैकल्पिक और अनिवार्य विषय पढ़े होंगे, मैंनें कहा जी आंटी।
वो बोलीं- बस मैं भी वही वैकल्पिक विषय बन कर रह गयी हूं।
मेरी समझ में कुछ नहीं आया मैं बस उन्हें देखती रही।
वो बोली बेटा अनिवार्य विषय मतलब बहुत जरूरी और वैकल्पिक मतलब सिर्फ काम चलाऊ। जब अनिवार्य चीजें मिलने में अड़चनें आती हैं तो तुमने देखा होगा वैकल्पिक का रास्ता अक्सर खुला होता है जिसे हम सिर्फ काम निकालने में इस्तेमाल करते हैं। अनिवार्य विषय हमारी जरूरत होते हैं जिसके लिए हम वैकल्पिक विषय को एक तरफ रख देते हैं...। वो बोलीं वही स्थिति मेरी भी है। ये बोलते हुए एक लम्बी सांस ली और आंटी चुप हो गयीं। कुछ देर की खामोशी के बाद वो पुनः बोली अब ये जिंदगी और रिश्ते भी कुछ इसी तर्ज पर निभाए जाते हैं...।
उनके जाने के बाद मैं सोचने लगी आंटी रिश्तों में आई औपचारिकता को कितनी आसानी से समझा गयीं.......।

कमला शर्मा 

Friday, 26 May 2017

...तुम केंद्र हो जीवन वृत्त की


नारी तुम सिर्फ जीवन वृत्त नहीं
इस वृत्त की केंद्र बिंदु हो
चाहे इसके चारों ओर
परिधि की हो लकीरें खीचीं
केंद्र हो फिर भी तुम क्यों
इस परिधि में कैद हो जाती
तुम अपना वजूद समझो तो
जीवन वृत्त विस्तृत कर सकती
परिधि के अंदर सिर्फ तुम नहीं
वृत्त का रूप भी तुम पर है निर्भर
केंद्रबिंदु जब भी डगमगाया
वृत्त ने रूप विकृत ही पाया
समझो अपने अस्तित्व को
परिवर्तन कर अपने अर्क में
परिधि को ही विस्तृत कर दो

कमला शर्मा

---स्मृतियां

मैं अपने स्मृति पटल पर
सहेज लेती हूूं वो सारे पल

जो मैंने महसूस किये
जिंदगी में मुसाफिर बनकर
ये स्मृतियां बातें करती...
गुजरे हुए उन लम्हों की
जो कभी मुझे गुदगुदाती
स्मृतियों के झरोखे से
और कभी विस्मित! हो जाती
अपनी नादान सी बातों से
मेरे स्मृति पटल पर
स्मृतियों के सैलाब हैं ठहरे
जिन्हें सहेजती रहूंगी
मन की किताब में
मन आखर-आखर हो जाएगा।

कमला शर्मा 

Saturday, 20 May 2017

तलाश...


हमने अपने से न जाने
कितने ही सवाल किये
जब खुद को टटोला तो
जवाब खुद ब खुद मिल गये
हम वो बनने की कोशिश करते रहे
जो हम कभी थे ही नहीं
खुद की तलाश में दूर तक गये
जब फुर्सत मिली इस दौड़ से
फिर जवाब. कुछ यूं मिले....
ईश्वर ने सबको नवाजा है
किसी न किसी बेशकीमती हुनर से
हमने भी खुद से नजदीकियां बढ़़ायी
अपनी पसंद-नापसंद की तलाश में
खुद को तराशने लगे
फिर हर सवाल के जवाब
अपने पास ही मिल गये

कमला शर्मा

नेह के ये मधुर अहसास


खुद को लिखना चाहा
किताब के पन्नों पर...
अहसास कैसे लिखती
इन कोरे पन्नों पर
शब्द सिमट गये
जज्बातों के असर से
जिन अहसासों को महसूस किया
कैसे लिखती किताब पर
ये अमिट हैं मेरे मन के अंतस में
किताब में लिखे शब्दों का क्या
मिट सकती है स्याही शब्दों की....
फिर सहेजती गई अहसासों को
और इस नेह की खुशबू से
महकती रही मन की किताब पर
शब्दों की पहेली उलझ न जाये
वक्त हाथ से यूं ही निकल न जाये
ये सोच आंखों में ही सहेज लिए
नेह के मधुर अहसास
जब भी आंखें बंद करती
महसूस कर लेती इन लम्हों को
ये कोरे पन्ने कैसे लिख पाएंगे
इन अहसासों के समंदर को

कमला शर्मा

Tuesday, 16 May 2017

उम्मीदों के सृजन का सफर...


मैंनें अपनी देह की,
सृजित आत्मा में,
बो के रखे हैं,
उम्मीदों के बीज।
इन्हें सींचती हूं ,
हर रोज, हर पल,
अपने कर्म जल से।
सहेज कर रखती हूं इसे,
जिंदगी के खरपतवार से।
नहीं मुरझाने देती,
उम्मीदों की कोमल कलियों को।
मैं जानती हूं उम्मीद की,
इस कठिन परिभाषा को,
उम्मीद धैर्य बंधाती है,
मंजिल का सफर तय करने में।
कई बार लड़खड़ाते हैं कदम,
उम्मीद टूट जाने पर।
लेकिन जब देखती हूं ,
इस बीज को परिणीत होते
हकीकत के पेड़ में।
मन प्रफुल्लित होता ,
इस पल्लवित बगिया से।
उम्मीद तू जिंदा रहना,
मेरी देह की आत्मा में।
तू है, तो मैं हूं ,
ये सृजन और ये सफर भी ......

कमला शर्मा

Saturday, 13 May 2017

मांँ...


मांँ तुझे शब्दों में कैसे व्यक्त करें,
तू अहसासों का समन्दर है।
हम इसमें बूंद भी बन जाएं तो,
इस जिंदगी में तर जाएं।
हम तुझे वर्णो व शब्दों में कैसे रचें,
तुम हमारे जीवन की वर्णमाला हो।
मांँ तूने हमें अपने नेह से सींच,
भावनाओं और अहसासों से,
हमें पल्लवित किया।
दुनिया में खूबसूरत रंगों से,
हमें परिचित करवाया,
तू वृक्ष बन त्याग करती रही,
हमें तपिश भरी धूप में भी,
अपने शीतलता के आंचल से,
ठंडी-ठंडी छांह देती रही।
इस ममत्व का तुझे,
क्या मोल हम दे पाएंगे...?
इसके ऋणी रहकर ही,
हम खुद तर जाएंगे।
मांँ तू इस धरा में,
संपूर्णता का अभिप्राय है।


कमला शर्मा 

...ये साथ तुम्हारा


मैं, मैं न रही, न जाने कब,
मैं और तुम हम बन गए।
बेसुध सी थी, तुमसे संवर गयी,
आंखों में छुपाये थे जो ख्वाब,
तुम उनके हमराज बन गए।
कुछ भी कहे बिना,
मन की बात सुन गए।
अल्फाजों के बिना ही,
अहसासों की किताब बन गए।
तुम अहसासों के घरौंदे को,
नेह से सींचते रहे।
मैं सपने बुनती रही,
तुम उन्हें सजाते रहे।
तुमसे मेरी जिंदगी के,
मायने बदल गए।
जिंदगी के इस सफर में,
साथ-साथ चलते रहे।
सफर के उतार चढ़ाव में,
हम और भी करीब आ गए।
तपिश भरी व्यस्तता के बाद भी,
एक-दूसरे के चेहरे को पढ़ने का,
बखूबी वक्त निकाल लेते।
न तुम कुछ कहते, और न मैं,
फिर भी एक-दूसरे की आवाज सुन लेते।

कमला शर्मा 

Thursday, 11 May 2017

....ये अथाह प्रेम

....ये अथाह प्रेम

मन यूं व्यथित हुआ,
इन अहसासों के मंथन में,
कहीं खो गई मन के अंतस में।
एक रिश्ते ने आज मुझे झकझोरा,
सुनकर व्यथा आंखें भर आईं।
एक पति-पत्नी का रिश्ता,
जन्म-जन्म साथ निभाने का,
लेकिन पत्नी की सांसें,
पति से पहले ही गई थीं थम,
इस विरह से पति की आंखें,
बार-बार हो रही थी नम।
इस अथाह प्रेम का,
ऐसा देख विराम!
मन विचलित हुआ और द्रवित भी...।
मन यूं सोचता रहा,
कैसे ये जन्म-जन्म का रिश्ता,
सांसें रुक जाने से सिमट सकता है?
फिर अगले ही पल सोचती,
सिर्फ शरीर अलग हुए हैं,
रिश्ता तो जन्म जन्मान्तर का ही है।
ये हमेशा भावनाओं में, अहसासों में,
हमेशा हर पल,
एक-दूसरे के साथ ही रहेंगे,
विचलित मन की इस कशमकश में,
मन में उठे थे, जो कई सवाल,
फिर अश्रुधारा के साथ,
प्रवाहित हो गए अहसासों में।
मन यूं ही व्यथित हुआ,
इन अहसासों के मंथन में।

कमला शर्मा

नदियों सी गहरी स्त्रियां

नदियों सी गहरी स्त्रियां

स्त्री संवाहक है संस्कृति की,
ये साहिल नहीं नदियों की।
ये जलधारा है निर्मल सी,
जो बहती चलती है निस्वार्थ।
साहिल के दोनों छोरों को,
साथ-साथ सहेजे हुए।
कभी आवेग हिचकोले लेता,
फिर भी बहती निश्छल सी सतह पर।
संस्कृति को सहेजकर,
सृजित करती नई पीढी में संस्कारांे को।
जैसे कई नदियां समाहित हो जातीं,
सागर के गहरे से जल में।
स्त्री यूं घुल-मिल जाती,
संस्कृति और संस्कारों के मेल में।
जैसे नदियां मिल जातीं,
सागर के अनंत प्रेम में।
स्त्री खुद को समर्पित करती,
संस्कारों व संस्कृति के संवहन में।
दोनों ही प्रेम और त्याग का पर्याय हैं,
स्त्री मध्यस्थ होती दो संस्कृतियों की,
नदियां मध्यस्थता करती साहिलों की।



कमला शर्मा

गिल्लू


गिल्लू

मेरे घर के आंगन में,
फुदक-फुदक कर आती गिल्लू।
नन्हें नन्हें हाथों से,
दाना चुगती प्यारी गिल्लू।
अपनी मटकाती आंखों से,
अपनी पूरी फौज बुलाती।
इस गिल्लू की पलटन में,
कबूतर, बटेर, चिड़िया सब साथी।
चिड़िया आती फुर्र से,
मुडेर में रखे पानी में।
छप-छप करके खूब नहाती।
पंख फड़फड़ा कर खूब इतराती,
गरमी के इस मौसम में।
ठंडी-ठंडी राहत पाती,
गिल्लू की इस पलटन से,
अपनी मन की बातें करती।
इस राहत भरी शीतलता से,
सज संवरकर बन-ठन के,
चिडिया उड़ जाती फुर्र से।
गिल्लू भी अपनी पलटन को,
जाने क्या निर्देश देती ?
कैप्टन गिल्लू के पीछे-पीछे,
सारी पलटन चल देती।
मेरे घर के आंगन में..........।

कमला शर्मा

...ये जिंदगी का सफर

...ये जिंदगी का सफर

कुछ उड़ान जिंदगी के लिए,
कुछ जिंदगी उड़ान के लिए,
यूं ही मंजिल की ओर चलते रहे।
कुछ सफर मनचाहा सा,
कुछ अनचाहा सा,
फिर भी सफर तय करते रहे।
मंजिल की तलाश में,
रिश्तों के दायरे सिमट गए।
इन दायरों में जज्बात भी कहीं खो गए,
जिन्हें जरुरत थी हमारी,
उन्हें अकेले छोड़ आए।
अहसासों के इस पतझड़ में,
रिश्ते कितने सूख गए।
जिंदगी की इस उड़ान में,
समय हाथ से फिसलता गया,
मुटठी में भरी रेत की तरह।
हम पढ़ते ही रह गए जिंदगी की किताब,
कीमती रिश्तों के बिना, हम कोरे से रह गए।

(कमला शर्मा)

रिश्ते

रिश्ते

रिश्ते हैं नाजुक सी डोर,
नेह के प्यारे मोती चुनकर,
रिश्तों की हम माला गूंथते।
विश्वास इसे मजबूती देकर,
अहसासों के सुंदर मोती,
एकसूत्र में हमें पिरोते।
रिश्तों की ये नाजुक डोर,
अपनेपन से हमें जोड़ती,
खालीपन की जगह न बचती।
एक-दूजे के मर्म को छूकर,
अंतर्मन में ये बस जाते।
इस नाजुक सी डोर में,
जब भी मोती कहीं बिखरते,
घर के कोनों में खोकर ,
खालीपन की जगह बनाते।
अहसासों के खालीपन में,
रिश्तें भी शिथिल हो जाते।
विश्वास में कभी ढील न देना,
भावनाओं से मजबूती देना।
नेह से रिश्ते तुम सहेजना,
रिश्तों की ये नाजुक डोर,
अहसासों से बांधे रखना।

कमला शर्मा

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बारिश

बारिश की इन बूंदों को सहेज लेना चाहती हूँ अपनी हाथों की अंजुली में आने वाली पीढी के लिए लेकिन कितना अजीब है न !! ऐसा सब सोचना.....