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Friday, 28 April 2017
Thursday, 27 April 2017
Wednesday, 26 April 2017
Tuesday, 25 April 2017
मन में ठहरा सा गाँव
आज मेरा मन जा पहुँचा ,
अपने गाँव की ठंडी छांव में।
प्रकृति के हरे भरे आँगन में ,
बीता अपना प्यारा बचपन।
खट्टे मीठे काफल , हिशालु ,
मन को खूब लुभाते।
आज मेरा मन जा पहुँचा ----
घर की मुडेर से दिखती ,
नदियाँ की चंचल जलधारा।
प्रात:काल इस नदियाँ में ,
सूरज की किरणें भी !
कुछ खेल अद्भुत करती।
सूरज अपनी आभा से ,
नदियाँ को उज्ज्वल स्नान कराती।
नदियाँ और सूरज की ,
इस प्यारी अठ्खेली में ---
हम अपनी आँखें मींच लेते ,
इस चकाचौंध सी रोशनी में।
आज मेरा मन जा पहुँचा ----
सांझ होते ही सूरज भी,
अपनी दिनभर की थकन मिटाने ,
सो जाता पर्वतों के आँचल में।
सांझ होते ही नदियाँ की कल-कल भी ,
कुछ नया ,संगीत मधुर सुनाती ।
पक्षी भी एकत्रित हो जाते,
पेड़ों की सुंदर झुरमुट में।
गुंजायमान प्रकृति हो जाती ,
उनकी मधुर आवाजों से।
उन्हें देखकर ऐसा लगता ,
जैसे बातें हो रही हो दिनभर की।
चीड़ के ऊंचे ऊंचे पेड़ों को देखकर लगता ,
जैसे प्रहरी हो , इस हरे भरे जंगल के।
बार बार सरस समीर ,
मन में हिचकोले लेता।
कर देती मन को शीतल ,
गाँव की ठंडी ठंडी छांव।
आज मेरा मन जा पहुँचा ----
बिलखती प्रकृति -----
सुन जरा नादान मनुष्य !
क्या भ्रम के जाले तूने पाले ?
प्रकृति की विनम्रता को ,
दुर्बलता का नाम न दें।
तू अपनी सुख सुविधा में लीन ,
प्रकृति को करने चला विलीन !
सुन जरा नादान मनुष्य .......
प्रकृति के इस मौन को ,
तू बेबसी का नाम न दें।
जब चीखेंगी , ज्वाला बनकर ,
आग ही आग उगलेंगी।
जब रोयेंगी अश्रु धारा बन ,
जल मग्न कर जाएंगी।
इस जल के रौद्र रुप में ,
मानव जाति कहीं खो जायेगी।
सुन जरा नादान मनुष्य ..........
अपनी बुद्धि , विवेक से ,
स्वार्थ की भौतिकता को ,
तू यूं न सींचित कर।
धरती के इस कोमल मन को ,
बार बार आहत न कर।
धरती के इस पावन मन को ,
मानव ने ही , उकसाया हैं।
अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए ,
शीतल , शांत प्रकृति को ,
भौतिकता की भेंट चढ़ाया हैं।
Saturday, 22 April 2017
वो अनुशासन प्रिय चेहरा
हमारी स्मृति में आज भी हमारे गुरुजन बसे हुए है।उनकी स्मृति मात्र से ही उनका व्यक्तित्व, आदर्श, हमारी आँखों के सामने तैरने लगता है। हमारे लिए आज भी वो हमारे आदर्श हैं हमारे लिए सम्माननीय है। आज भी जब उनकी याद आती है तो हम अपने शिक्षकों के बारे में अपने बच्चों को बताने के लिए उतावले हो जाते है।जब भी हमारे शिक्षक हमें कहीं दिख जाते है तो हम उनके चरणों में झुक जाते है और हमें देखकर उनकी आँखों में खुशी झलकने लगती है।ये गुरू शिष्य का रिश्ता अविस्मरणीय होता है। हमें याद है हमारे गुरूजन हमें जहाँ कहीं भी दिख जाते थे तो हम उन्हें देखकर छिप जाते थे। आज भी मेरी स्मृति में वो दिन तरोताजा है , मुझे अब भी याद है राजकीय कन्या इण्टर कालेज में हमारी प्रधानाचार्या सुश्री आनंदी आर्या जी का अनुशासन प्रिय वो चेहरा , वो भाव। उनके नाम से ही मुझे एक वाकया याद आता है, मैं आठवीं कक्षा में पढ़ती थी , मैं अपनी सहेलियों के साथ सर्कस देखने चली गयी। जिस जगह पर सर्कस लगा था वहीं हमारी प्रधानाचार्या जी भी रहती थीं इसी बात को लेकर हम सब के मन में ये डर भी था कि कहीं उनकी नजर हम पर न पड़ जाये लेकिन उस सर्कस देखने के उत्साह को रोक न पाए और नजरें बचाते हुए वहाँ से निकल गये।सर्कस के रोमांचक करतब के साथ साथ दिमाग में प्रधानाचार्या जी का डर भी सताये जा रहा था, खैर सब कुछ ठीक था हमें लगा हम बच गये किसी ने नहीं देखा।दूसरे दिन स्कूल पहुंचे, जब स्कूल में सुबह प्रार्थना समाप्त होने के बाद प्राधानाचार्या जी मंच से बोली - बच्चों कल सर्कस देखने कौन - कौन गया था बस क्या था हमारे चेहरे की तो हवाईया तो उड़ गयी और चुपचाप प्रार्थना की कतार से अलग खड़े हो गये। ऐसे न जाने कितने वाकये हैं जो याद आते हैं। हमने अपने शिक्षकों से बड़ों का सम्मान करना सीखा--। खैर, अब जब शिक्षा के नए रूप में शिक्षक और बच्चों को देखती हूँ तो मन विचलित होता है, बच्चों में इस पवित्र रिश्ते का अंकुरण सूखने लगा है, ये नहीं होना चाहिए ---। ये गहरे चिंतन का विषय है ---।
दहलीज के उस पार
जब भी कोई लड़की मायके से ससुराल की दहलीज में पदार्पण करती है, उसके मन में सवालों की झड़ी सी लग जाती है। नये रिश्ते, नये लोग, नये रीति रिवाज, नयी जिम्मेदारियाँ न जाने मन में क्या क्या उधेड़बुन चलती है । उसके साथ साथ कुछ मन को उत्साहित करने वाले सपने शायद जो इन जिम्मेदारियों को निभाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जब लड़की इस पवित्र बंधन से जुड़ती है, तो वो सिर्फ एक व्यक्ति से नहीं, कई नये रिश्तों से मिलती है। इस पवित्र रिश्ते की बुनियाद सिर्फ विश्वास और भरोसे से शुरू होती है। जिन लोगों को कभी देखा नहीं, कभी मिले नहीं जिनकी आदतों से परिचित नहीं होते, उनके साथ आकर हमेशा के लिए साथ रहना, तालमेल बैठाना, सबके दिलों में जगह बनाना, ये सब आसान तो नहीं, लेकिन एक व्यक्ति जिसकी अर्धांगिनी बनकर हम इस घर में प्रवेश करते है, उस पर न जाने क्यों एक अटूट विश्वास होता है, एक भरोसा होता है जिससे हम अपनी सारी बातें सांझा करने लगते है, यहाँ पर सभी अपरिचित है किसी से कुछ पूछने में या अपनी बात बोलने में जो संकोच या डर होता है वो डर इनसे नहीं, कुछ तो खास बात है अनजान होने पर भी अपने से ज्यादा भरोसा करने लगते है। हमसफर यदि इस सफर में साथ साथ चले तो ये सफर, ये रिश्ते सब आसान हो जाते है। लेकिन कुछ समय बाद ------ जिस मायके में लड़की तितली सी चंचल , स्वच्छंद अपनी मर्जी से घर के हर कोने में घूमती थी वही मायके की दहलीज न जाने कब अपरिचित सी, अनजान सी लगने लगती है। जिस घर में बचपन बीता, जिस घर के हर एक सामान पर अपना हक जताते थे, वही सामान को लेने से पहले अब पूछने लगते है -------- घर वही, रिश्ता वही लेकिन इस नये रिश्ते के साथ हमारे कुछ अपने दायरे तय हो जाते है, उस बचपन की दहलीज के लिए -----। जिस अनजान दहलीज में पदार्पण किया था, न जाने वो कब , इन खट्टे मीठे रिश्तों के साथ अपनी सी लगने लगती है, पता ही नहीं चला। यहाँ जिम्मेदारियां बोझ नहीं फर्ज में बदल गयी। हमारी पसंद नापसंद न जाने कब इस परिवार के सदस्यों के हिसाब से ढल जाती है। इस बदलाव में भी सुकून है कोई शिकायत नहीं। इन रिश्तों में जीना अच्छा लगने लगता है और इस अनजान सी दुनिया में कब हमारी अपनी एक खूबसूरत सी दुनिया बस जाती है पता ही नहीं चलता ----।
आलोचक और निंदक
एक आलोचक किसी भी विषय या दृष्टांत का समग्र निरीक्षण करने के पश्चात उसकी गलतियों या कमियों पर प्रकाश डालता है, उसे उजागर करता है, लेकिन एक निंदक सिर्फ और सिर्फ अपनी निंदा के आवरण से समग्र विषय या दृष्टांत को अंधेरे में छिपा देना चाहता है। निंदक विषय के किसी भी पहलू को समझना ही नहीं चाहता, उसे सिर्फ किसी बात को गलत साबित करना होता है, अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर, लेकिन एक आलोचक कभी भी स्वार्थी नहीं होता वो निष्पक्ष होकर विषय का विश्लेषण करता है, जो हमारी सफलता और विचारों की गहनता के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाता हैं।
अंतर्मन की आवाज
हम सभी अंतर्मन के द्वंद से अक्सर संवाद करते हैं, इस वार्तालाप में दिमाग अपनी बुद्धिमत्ता के कारण हमारे अंतर्मन की सरल, सौम्य, निश्छल, नि:स्वार्थ और कोमल भावनाओं पर हावी होने लगता हैं। हमारा अंतर्मन हमेशा सही निर्णय लेता है, लेकिन हममें से बहुत कम लोग होते हैं जो अंतर्मन की आवाज सुन पाते हैं, क्योंकि कभी जिम्मेदारी, कभी आर्थिक स्थिति, सामाजिक परिवेश, पारिवारिक वातावरण ये सब हमारे अंतर्मन की आवाज को मन में ही दफन कर देते हैं। हमने देखा है हमारा एक निर्णय , हमारे जीवन में अहम भूमिका निभाता है।हम इस अंतर्मन के निर्णय को अक्सर स्वार्थ व बाहरी परिवेश के अधीन होकर मन के किसी अंधेरे कोने में छिपा लेते है, लेकिन मन के अंधेरे कोने में छिपे इस निर्णय से हम अक्सर वार्तालाप करते है और कहीं न कहीं उस निर्णय को न मानने पर पछतावा भी -----।हम अक्सर अपने बच्चों के बेहतर भविष्य को लेकर इतने चिंतित हो जाते हैं कि उस बेहतर भविष्य के निर्माण करने के लिए उनको जिंदगी की तेज रफ्तार में एक धावक की तरह दौड़ में शामिल कर देते है, इस भागमभाग में हम उनकी रुचि, खुशी सब कुछ भूलकर कहीं पीछे छोड़ आते है----------------------------। हम सोचते है हम माँ- बाप है, हमसे बेहतर बच्चों के बारे में और कौन सोच सकता है -------------------? बात तो सही है, माँ- बाप से बेहतर कोई भी नहीं, लेकिन इस दौड़ में हम अपने बच्चों की कोमल भावनाओं को रौंद देते है। उस बेहतरी के जुनून में इस ओर ध्यान ही नहीं जाता कि बच्चा क्या चाहता है -----------------? एक मासूम सा बच्चा हमारी खुशी के लिए वो सब करने लगता है जो हम चाहते है, हमारे पसंदीदा विषय चुन लेता है, और उसी को अपना कैरियर बनाने की कोशिश भी करता है लेकिन कभी - कभी ये अंतर्द्वंद्व मस्तिष्क पर हावी होने लगता है जो गलत रास्ते आत्महत्या जैसी घटनाओं के लिए प्रेरित करता है। क्या ये सही है ----? हमें इस अंतर्मन की आवाज को सुनकर अपने को और अपने बच्चों को इस अंतर्द्वंद्व के चक्रव्यूह से बाहर निकालना होगा, तभी हम एक बेहतर समाज का निर्माण कर पायेंगे, क्योंकि दबाव और अरुचिपूर्ण कार्य कभी भी मानसिक संतुष्टि नहीं देता, हमारा दबाव बच्चों को उच्च सामाजिक स्तर, मजबूत आर्थिक स्थिति दे सकता है, लेकिन आत्म संतुष्टि तो रुचिकर कार्य से ही मिल सकती है, ये वो खुशी है जिसे हम उनके चेहरों पर महसूस कर सकते हैं। इस रुचि व अरुचि के बीच के द्वंद्व को समाप्त करके, अपने बच्चों के सपनों को आकार देकर, शायद इन सपनों को हमारे सोच से भी बेहतर आकार मिल जाए।
हम सभी अंतर्मन के द्वंद से अक्सर संवाद करते हैं, इस वार्तालाप में दिमाग अपनी बुद्धिमत्ता के कारण हमारे अंतर्मन की सरल, सौम्य, निश्छल, नि:स्वार्थ और कोमल भावनाओं पर हावी होने लगता हैं। हमारा अंतर्मन हमेशा सही निर्णय लेता है, लेकिन हममें से बहुत कम लोग होते हैं जो अंतर्मन की आवाज सुन पाते हैं, क्योंकि कभी जिम्मेदारी, कभी आर्थिक स्थिति, सामाजिक परिवेश, पारिवारिक वातावरण ये सब हमारे अंतर्मन की आवाज को मन में ही दफन कर देते हैं। हमने देखा है हमारा एक निर्णय , हमारे जीवन में अहम भूमिका निभाता है।हम इस अंतर्मन के निर्णय को अक्सर स्वार्थ व बाहरी परिवेश के अधीन होकर मन के किसी अंधेरे कोने में छिपा लेते है, लेकिन मन के अंधेरे कोने में छिपे इस निर्णय से हम अक्सर वार्तालाप करते है और कहीं न कहीं उस निर्णय को न मानने पर पछतावा भी -----।हम अक्सर अपने बच्चों के बेहतर भविष्य को लेकर इतने चिंतित हो जाते हैं कि उस बेहतर भविष्य के निर्माण करने के लिए उनको जिंदगी की तेज रफ्तार में एक धावक की तरह दौड़ में शामिल कर देते है, इस भागमभाग में हम उनकी रुचि, खुशी सब कुछ भूलकर कहीं पीछे छोड़ आते है----------------------------। हम सोचते है हम माँ- बाप है, हमसे बेहतर बच्चों के बारे में और कौन सोच सकता है -------------------? बात तो सही है, माँ- बाप से बेहतर कोई भी नहीं, लेकिन इस दौड़ में हम अपने बच्चों की कोमल भावनाओं को रौंद देते है। उस बेहतरी के जुनून में इस ओर ध्यान ही नहीं जाता कि बच्चा क्या चाहता है -----------------? एक मासूम सा बच्चा हमारी खुशी के लिए वो सब करने लगता है जो हम चाहते है, हमारे पसंदीदा विषय चुन लेता है, और उसी को अपना कैरियर बनाने की कोशिश भी करता है लेकिन कभी - कभी ये अंतर्द्वंद्व मस्तिष्क पर हावी होने लगता है जो गलत रास्ते आत्महत्या जैसी घटनाओं के लिए प्रेरित करता है। क्या ये सही है ----? हमें इस अंतर्मन की आवाज को सुनकर अपने को और अपने बच्चों को इस अंतर्द्वंद्व के चक्रव्यूह से बाहर निकालना होगा, तभी हम एक बेहतर समाज का निर्माण कर पायेंगे, क्योंकि दबाव और अरुचिपूर्ण कार्य कभी भी मानसिक संतुष्टि नहीं देता, हमारा दबाव बच्चों को उच्च सामाजिक स्तर, मजबूत आर्थिक स्थिति दे सकता है, लेकिन आत्म संतुष्टि तो रुचिकर कार्य से ही मिल सकती है, ये वो खुशी है जिसे हम उनके चेहरों पर महसूस कर सकते हैं। इस रुचि व अरुचि के बीच के द्वंद्व को समाप्त करके, अपने बच्चों के सपनों को आकार देकर, शायद इन सपनों को हमारे सोच से भी बेहतर आकार मिल जाए।
ये कैसी दौड़ ...........
योग्यता या श्रेष्ठता का आकलन अंकों के आधार पर कैसे किया जा सकता है ?
अक्सर परीक्षाओं की शुरुआत ही अंको की प्रतिशतता को लक्ष्य बनाकर होती है। परीक्षार्थियों का केंद्र बिंदु विषय वस्तु में ज्ञान प्राप्ति न होकर, अधिक से अधिक अंक प्राप्त करने पर केन्द्रित होता है।
येन- केन प्रकारेण अंकों की अधिकता भी प्राप्त हो जाती है और श्रेष्ठता सूची में स्थान भी प्राप्त हो जाता है।क्या विषय वस्तु के ज्ञान के बिना ये श्रेष्ठता या योग्यता का आंकलन सही है .....................?
यही अंकों की श्रेष्ठता के आधार पर उसका चयन किसी कार्यक्षेत्र में भी हो जाता है लेकिन ......................
क्या वो उस कार्य को उतनी ही निष्ठा और निपुणता से कर पाएगा, जिसका उसे ज्ञान ही नहीं ...........?
ये कार्य उसके लिए सिर्फ और सिर्फ जीविकोपार्जन और द्रव्य कमाने का साधन मात्र बन जाता है।
मेरा मानना है जिसके लिए शायद वह अकेले ही जिम्मेदार नहीं, अपितु उसके साथ - साथ हमारी शिक्षा नीति और समाज भी जिम्मेदार है , क्योंकि हमारी शिक्षा नीति और समाज का नजरिया ही उसे अंकों की दौड़ में शामिल होने के लिए विवश करता है।
हम माता -पिता भी कम जिम्मेदार नहीं है.................
परिवार का बच्चों पर इंजीनियर, डाक्टर या प्रशासनिक अधिकारी बनने का सपना थोप दिया जाता है, इससे नीचे की बात तो जैसे कोई अपराध हो।
हम जैसे बच्चों को इन सपनों को पूरा करने का संसाधन मान चुके हैं , जब तक वही बच्चा अपने रुचिकर कार्य करने के लिए सक्षम और स्वतंत्र होता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है क्योंकि तब तक वो इस कार्य प्रणाली का हिस्सा बन चुका होता है।
व्यक्ति सोचने लगता है जीऊँगा एक दिन अपने सपनों के साथ, लेकिन न वो एक दिन आता है और न वो सपना पूरा होता है, फिर उसी अधूरे सपने को अपने बच्चों पर थोपने लगता है ...............और उसी एक परम्परा का हिस्सा हो जाता है।
प्यारी बेटियाँ ------
ओह ! मेरी प्यारी परियों ,
तुम दोनों की दिनभर नादानी।
भर देती मुझमें हैरानी !
जब तुम रहती मेरे आस पास ,
करती परेशान तुम्हारी शैतानी।
जब भी बैठती ये मेरे साथ ,
पूछती मेरे बचपन की बात।
अक्सर पूछती मेरे स्कूल की बातें ,
करती दोनों इतनी बातें ,
वो टीचर , मैं बच्ची बन जाती।
बात अंग्रेजी विषय की होती ,
पूछती कब पढ़ा ये विषय ?
मेरा जवाब छठी कक्षा होता।
यकीन नहीं दोनों को होता ,
देखती एक दूसरे की ओर ,
फिर हँसती दोनों जोर जोर से।
दोनों में से एक, सवाल ये करती ,
जब सच है ये बात , फिर हमें पढ़ाती कैसे आप ?
मैं ये सब सुनकर हँस देती ,
प्यार से उनको गले लगाती।
इस स्नेह के आँचल में ,
सवाल कहीं छूमंतर हो जाता।
उन दोनों की इस मस्ती में ,
मैं खो जाती अपने बचपन में।
दोनों आती मेरे पास ,
फिर होती आगे की बात -------
उनके होते इतने सवाल ,
न जाने कोई उनके जवाब।
संदेश
उगते सूरज ने सिखाया,
कर्तव्य पथ पर चलते रहना।
सूरज की तपिश ने दिया,
मेहनतकश बनने का संदेश।
मेहनत की गरमी में जलकर,
दुनिया को रोशन करना।
बादलों, आँधी ने दिया,
कर्तव्यपथ पर बाधाओं का संदेश।
घनेरे बादलों के बीच भी,
अपने पथ पर डटे रहना।
देता है अपना वजूद बनाए रखने का संदेश।
ढलते सूरज ने सिखाया,
विनम्र भाव से शीश झुकाना।
सुनिए तो जरा------
हम जितना बेहतर बेटियों को बनाएंगे, वो उतना ही बेहतर समाज हमें देंगी। बेटियों को लेकर आज भी सोच का दायरा सीमित है, आज बेटियाँ शिक्षित और आत्मनिर्भर तो हो गयी हैं, लेकिन फिर भी घर से बाहर निकलते ही उनके मन में एक डर और भय का अन्यास ही जन्म हो जाता है। समाज में व्याप्त बुराइयों को लेकर मन में एक उधेड़बुन सी चलती रहती है और हर रोज मानसिक रूप से कहीं न कहीं प्रताड़ित होती हैं। आज हम बेटियों को बेहतर शिक्षा और सुख- सुविधाएं देने में कहीं भी कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं, उसके बावजूद भी बेटियाँ हमारी आँखों में, हमारे मन के किसी कोने में कुछ ऐसा तलाशती हैं, शायद जो इन सुख- सुविधाओं से कहीं ऊपर है -------------।
अक्सर देखा जाता है कि जब बेटियाँ घर से बाहर पढ़ने के लिए कालेज, ट्यूशन या नौकरी के लिए निकलती हैं, तो उसके साथ होने वाले अभद्र व्यवहार, छेड़खानी या गंदे कमेन्ट उसे मानसिक रुप से परेशान करते है, और इस पीड़ा को वो अपने परिवार को बताना भी चाहती हैं, लेकिन कहीं न कहीं इस बात का डर भी उसे सताता है कि घरवाले भी उसे ही दोषी बताएंगे। यही डर उसे अपने साथ हो रहे गलत व्यवहार को अकेले सहने को मजबूर करता है और जो अपराध उसने किया ही नहीं उसकी भागीदार बन जाती है।यहाँ आकर उसे लड़की होने का अफसोस होता है।
इस डर और अपनी बात खुलकर कहने का जो संकोच उसके मन में चलता है, शायद उसके जिम्मेदार भी हम ही हैं। बेटियों को सिर्फ सुख-सुविधाएं और उच्च शिक्षा देना ही हमारा फर्ज नहीं है, उसे जरूरत है हमारे साथ की, उसके साथ समय बिताने की, उसके साथ मित्रतापूर्ण व्यवहार की, उसके बातों को समझने की।
बेटियाँ सिर्फ माता -पिता का ही नहीं , हमारे समाज का भी गुरूर हैं, स्वाभिमान हैं। बेटियाँ हमारी संस्कृति की संवाहक हैं, ये दो परिवारों को जोड़ने की कड़ी हैं।हम बेटियों को जो शिक्षा और संस्कार देते हैं उससे वो एक समाज का, युग का निर्माण करती है।
Saturday, 8 April 2017
प्रेम की अनंत गहराई एक रिश्ता बहुत करीब से देखा हुआ, वाकया बहुत छोटा है लेकिन प्रेम में विश्वास को बनाए रखने के लिए भावनाओं से सराबोर। मैं यहाँ अनंत प्रेम को शब्दों में समेटने की कोशिश कर रही हूँ, मैं जानती हूँ , प्रेम में किसी शब्द या बाहरी आवरण के लिए कोई जगह नहीं है। फिर भी ------ वैवाहिक जीवन की शुरुआत ही विश्वास से होती है।ऐसे ही इन दोनों ( पति पत्नी ) की भी ------ विश्वास और भरोसे के साथ दोनों का प्रेम समय के साथ साथ और भी अधिक गहरा होता गया, इस प्रेम की तरह परिवार की जिम्मेदारियां भी बढ़ने लगी। इस जिम्मेदारी के चलते -चलते दोनों को अलग अलग स्थान पर नौकरी करनी पड़ी। पत्नी बच्चों के साथ रहकर और पति परिवार से दूर रहकर, समय बीत रहा था, दोनों के प्रेम करने तरीके बदल गये, लेकिन उस प्रेम में अब पहले से भी कही अधिक गहराई और अपनापन था, दोनों का एक दूसरे के लिए सम्मान था। इस भागदौड़ और व्यस्तता के बाद भी उन दोनों में एक चीज कभी नहीं बदली, वो था उन दोनों का प्रेम और भरोसा। दोनों अपनी व्यस्त दिनचर्या में से भी, समय से कुछ पल अपने लिए चुरा लेते थे। दोनों के कार्यक्षेत्र की दिनचर्या बिल्कुल विपरीत थी लेकिन इसके बावजूद भी दोनों का प्रेम और भरोसा चरमबिंदु पर था। पत्नी की दिनचर्या का हिस्सा था पति को फोन करके उठाना और दिनभर की व्यस्तता के बाद रात को पति के फोन का इंतजार करना, क्योंकि दोनों का कार्यक्षेत्र, दिन में फुर्सत से बात करने की इजाज़त नहीं देता था। वही पति की दिनचर्या में देर रात से लौटने पर सबसे पहले पत्नी से फोन पर बात करना दिनचर्या का हिस्सा था, जितना इंतजार पत्नी को फोन आने का होता था, उतनी ही बेसब्री पति को फोन करने की। ये सिलसिला चलता रहा। एक दिन पत्नी दिन भर की भागदौड़ से शायद कुछ ज्यादा ही थक गयी थी, इंतजार कुछ ज्यादा ही लम्बा लगने लगा था, घड़ी की टिक टिक बार बार उसका ध्यान अपनी ओर केंद्रित कर रही थी, तभी एक बजे के आसपास पति का फोन आता है, बातों का सिलसिला शुरू हो जाता है -----------। अगले दिन सुबह फिर वही दिनचर्या शुरू हो जाती है पत्नी, पति को उठाने के लिए फोन निकालती है, तो नजर फोन के मैसेज पर पड़ती है जिस पर Sorry लिखा हुआ था, पत्नी को कुछ भी समझ में नहीं आया और उसने तुरंत पति को फोन लगाया। पति फोन पर पत्नी से बोला - तुम ठीक हो। पत्नी ने हाँ में जवाब दिया, फिर बोली आपने Sorry का मैसेज क्यों किया था, पति बोलता है - कल रात बात करते समय तुम कुछ बोल नहीं रही थी, मैं बहुत देर तक तुम्हारे हाँ और ना के बिना बात करता रहा। फिर मुझे लगा शायद बात करते करते तुम्हें मेरी किसी बात से दु:ख पहुंचा हो। पत्नी ये सब सुनकर नि:शब्द होकर अश्रुधारा में प्रवाहित हो गयी और फिर अपने को संभालते हुई बोली - मैं कल थकान के कारण आपकी बात नहीं सुन पायी थी और कब सो गयी, पता ही नहीं चला। आप इस बात को लेकर रात भर परेशान रहे और Sorry बोलने लगी, लेकिन इन दोनों के प्रेम के बीच इस शब्द के लिए कोई जगह नहीं थी ------------ । इस वाकये को लिखते समय मेरी आँखों में आँसू रुक न पाए। वाकई प्रेम में दूरियाँ मायने नहीं रखती, ये तो भावनाओं का अतिरेक है, प्रेम नि:शब्द है
मुस्कान हमारी जिंदगी का एक खूबसूरत सा तोहफा है , लेकिन कई बार हम सोचते है कि हमारे पास मुस्कराने के लिए कोई वजह भी तो नहीं, इस वजह को ढूंढते -ढूंढते हम आज (वर्तमान ) के खूबसूरत लम्हों को जीना भूल जाते है। ये भूल जाते है कि हमारे चेहरे की मुस्कान किसी को नई ऊर्जा और उत्साह देती है।इस मुस्कान में कुछ तो जादू है , जो पल भर में हमारी बहुत सारी परेशानियों को छूमंतर कर देती है।जिंदगी का हर एक पल बहुत खूबसूरत है , उस पल को हमें समय से चुराना है। इस मुस्कान को बरकरार रखने के लिए छोटी -छोटी खुशियाँ तो प्रत्येक दिन हमारे आँगन में दस्तक देती हैं, बस उन्हें सहेजने का हुनर सीखना है, बड़ी -बड़ी खुशियों की तलाश में आज की खुशियों को दाव पर लगाना कहाँ की अक्लमंदी है ? इसीलिए हर पल , हर लम्हे को मुस्कुराते हुए जीना ही जिंदगी है। भविष्य की चिंता करना अच्छी बात है, लेकिन चिंता की चिता में हर पल जलना ठीक है क्या ? मुस्कुराते चेहरे हमेशा खूबसूरत लगते है। आप भी जिंदगी की इन छोटी -छोटी खुशियों को बटोर लीजिए, कहीं देर न हो जाए। बस मुस्कराने की वजह अपने आप ही मिल जायेगी
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