Search This Blog
Wednesday, 28 June 2017
LIFE'S SMILE: मन से गुजरती ट्रेन
LIFE'S SMILE: मन से गुजरती ट्रेन: ट्रेन मेरे लिए एक सफर तय करने का संसाधन मात्र नहीं थीं, इसकी रफ्तार के साथ मेरी जिंदगी की रफ्तार तय होती थी। उनींदी अवस्था में भी ट्रेन स...
LIFE'S SMILE: आखिर कब तक...
LIFE'S SMILE: आखिर कब तक...: यात्रा के दौरान मिले खट्टे-मीठे अनुभव जहां सफर को आसान बनाते हैं वहीं कुछ स्मृतियां हमारे जेहन में रह जाती हैं। ऐसा ही कुछ यात्रा वृतां...
आखिर कब तक...
यात्रा के दौरान मिले खट्टे-मीठे अनुभव जहां सफर को आसान बनाते हैं वहीं कुछ स्मृतियां हमारे जेहन में रह जाती हैं। ऐसा ही कुछ यात्रा वृतांत आप लोगों से शेयर कर रही हूं। निजामुद्दीन स्टेशन से जैसे ही ट्रेन में चढ़ी और अपनी सीट पर जाकर बैठी तभी एक महिला मेरे सामने वाली सीट पर आकर बैठ गई। धीरे-धीरे हम दोनों में बातों का सिलसिला शुरु हुआ और जैसा अक्सर हम किसी से मिलने पर औपचारिक बातें करते हैं वैसी ही कुछ हमारे बीच हुइंर् इन्हीं बातों के दौरान महिला ने पूछा- आपको कहां जाना है? मैंने कहा नागपुर। वो महिला बोली- ओह मुझे भी नागपुर ही जाना है। इन्हीं बातों के दौरान महिला ने घर, परिवार, बच्चों के बारे में पूछ लिया जैसे ही मैंने बताया कि मेरी जुड़वा बेटियां हैं तो महिला ने बड़े ही आश्चर्य से कहा ओह...! फिर बोली- काश एक बेटा और एक बेटी हो जाती तो फैमिली कम्पलीट हो जाती। खैर, ईश्वर की मर्जी के आगे किसकी चलती है, मुझे उस महिला की सहानुभूतिपूर्ण बातों से ऐसा लगा जैसे मेरे साथ कोई घटना घट गई हो और वो दुख प्रकट कर रही हो। खैर मैं उसकी बातें सुनकर धीरे से मुसकुराई और उसकी बातों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की लेकिन प्रतिक्रिया नहीं देने का ये मतलब कतई नहीं था कि मैं उसकी बातों से सहमत थी। मैं मन ही मन में सोचने लगी जो महिला वेषभूषा, रहन-सहन के तौर तरीके से आधुनिक प्रतीत हो रही है वो ऐसी बातें कैसे कर सकती है। बाहरी स्वरुप आधुनिकता से लबरेज लेकिन मानसिक स्तर इतना संकीर्ण कैसे हो सकता है ?
ये बात मेरे मन में गहरे बस गई थी। मैंने बातों ही बातों में पूछा क्या आप नौकरी करती हैं ? महिला ने बड़ी ही उत्सुकता में हां में जवाब दिया और बोली कि हम महिलाएं चूल्हा-चौका करने के लिए ही थोड़ी बनी हैं। हमें भी अपनी जिंदगी जीने का अधिकार है। हम पुरुषों से किसी भी तरह कमजोर नहीं हैं। मैंने कहा- आप बिलकुल सही कह रही हैं लेकिन इसके बावजूद भी हमारे समाज में लड़कों को ही प्राथमिकता दी जाती है। परिवार में सिर्फ लड़कियों के होने से परिवार को संपूर्ण नहीं माना जाता लेकिन इसके विपरीत कभी भी सुनने में नहीं आया कि बेटी के बिना परिवार अधूरा सा लगता है। बेटियों के बिना समाज और परिवार पूर्ण है क्या ? क्यों यहां आकर सोच संकीर्ण हो जाती है ?
मानव को बौद्धिक स्तर पर श्रेष्ठ माना गया है, वो श्रेष्ठ है भी, लेकिन इन्हीं में से ऐसे उदाहरण भी मिल जाते हैं जो अपनी आवश्यकताओं और सुविधाओं के अनुसार रीतियों, परम्पराओं और स्वार्थ पूर्ति के लिए समय-समय पर अपनी वैचारिक स्थिति में परिवर्तन करते रहते हैं और दोगले व्यवहार के शिकार भी बन जाते हैं। कई बार सुनने में आता है कि बेटे को लेकर घर-परिवार या समाज का दबाव महिलाओं पर अत्यधिक हो जाता है जो सही नहीं है। महिलाओं को भी अपने जेहन में ये बात रखनी चाहिए कि हम वही स्त्री हैं जिन्होंने आत्मनिर्भर बनने के लिए घर की दहलीज पार करके अपने अधिकारों को समझा और आर्थिक रुप से आत्मनिर्भर बनीं। दुख तो तब अधिक होता है कि जब कुछ महिलाएं ही इस भेद को गहरा कर देती हैं, वे खुद किसी की बेटी रही होंगी, बावजूद इसके बेटा-बेटी वाली बातें करना अशोभनीय प्रतीत होता है। मुझे लगता है कि इसका दोषारोपण घर, परिवार एवं समाज पर कैसे कर सकते है। इस बात पर मैं कतई सहमत नहीं हूं...।
महिला मेरी बात सुनकर असहज सी हो गई...। उसके बाद एक लंबा मौन छा गया, रेल अपनी गति से सफर तय करती जा रही थी लेकिन एक सवाल मेरे मन में कहीं ठहर सा गया था...जिनका जवाब मैं पूरे रास्ते खोजने का प्रयास करती रही।
कमला शर्मा
Saturday, 10 June 2017
मन से गुजरती ट्रेन
ट्रेन मेरे लिए एक सफर तय करने का संसाधन मात्र नहीं थीं, इसकी रफ्तार के साथ मेरी जिंदगी की रफ्तार तय होती थी। उनींदी अवस्था में भी ट्रेन सपरट दौड़ा करती थी। ये मेरी दिनचर्या का हिस्सा थी।
बात उस समय की है जब नौकरी के लिए घर से कार्यक्षेत्र जाने के लिए मुझे प्रतिदिन आवागमन करना पड़ता था। सुबह चार बजे उठते ही सबसे पहले नजरें मोबाइल को ढूंढती थी और ट्रेन की लोकेशन को देखती कि कौन सी ट्रेन निर्धारित समय से चल रही है या विलंब से। उसी अनुसार घर के कार्यो का निर्धारण होता था और बच्चे भी उसी रफ्तार का हिस्सा बन गए थे। ट्रेन पकडने के प्रयास में कई बार चाय पीते-पीते छोड़ जाना और भागते हुए स्टेशन पहुंचना ये सब जिंदगी का हिस्सा बन गया था। जब ट्रेन निर्धारित समय पर रेलवे स्टेशन पहुंचती थी तब चेहरे पर एक चमक और सुकून छा जाता था। साथ चलने वाले दोस्त सफर को आसान बना देते थे। इस सफर के दौरान हमने एक खास बात सीख ली थी। भीड़ के बीच में भी अपने लिए जगह बना लेना। ट्रेन में चाहे जितनी भी भीड़ हो इस चुनौती का सामना तो करना ही पड़ता था। गर्मी में जब हांफते हुए भीड़ के बीच प्रवेश करते और सीट पर बैठने के लिए जगह दे देता तो वो व्यक्ति किसी फरिश्ते से कम नहीं लगता था। हमें ट्रेन के नंबर तो जैसे रट ही गए थे।
कई बार एक मिनट के देरी के चक्कर में आंखों के सामने से ट्रेन सरपट निकल जाती और कई बार स्टेशन पर उदघोषणा होते रहती कि ट्रेन पंद्रह मिनट लेट है लेकिन वो पंद्रह मिनट न जाने कब एक घंटे में तब्दील हो जाते थे और हमारे चेहरे पर बच्चों और घर के चिंता, शाम होने का भय स्पष्ट नजर आने लगता। ऐसी स्थिति में तो दोस्तों की बातों पर भी मन नहीं लगता था। बस घर की ही चिंता सताने लगती और बार-बार घर फोन करके बताना कि ट्रेन लेट हो गई। बच्चों को फोन पर ही उनके पास होने का अहसास दिलाना और कभी-कभी इस भागमभाग से मुंह फेरने को मन करता था।
पूरे सप्ताह हमें अवकाश का इंतजार रहता था। शनिवार का सफर कुछ आसान लगता था। अकसर रविवार से अधिक शनिवार राहत देता था क्योंकि इस दिन हम परिवार के साथ मन की जिंदगी जीते थे, छोटी-छोटी खुशियां एक दूसरे से बांटते और खूब खुश होते। रविवार शाम होते-होते फिर वही रफ्तार हमारी जिंदगी में शामिल हो जाया करती थी। इस सफर के दौरान अक्सर हम दोस्त यही बोलते कि कब इस भागमभाग से छुटकारा मिलेगा।
आज मुझे इस भागमभाग भरी जिंदगी से आराम है लेकिन फिर भी वो दोस्त, चुनौतीपूर्ण जीवन, खट्टे-मीठे अनुभव आज भी याद आते हैं। आज भी जब में कहीं सफर कर रही होती हूं और कोई प्रतिदिन आवागमन करने वाला व्यक्ति नजर आ जाता है तो मैं अपने आप अपनी जगह से थोड़ा सिमटकर बैठ जाती हूं...ये दौड, ये सफर मुझमें बहुत कुछ शिष्टाचार भी सिखा गया। आज भी यही महसूस होता है कि ट्रेन कहीं अंदर से होकर गुजर रही है।
कमला शर्मा
परवाह
सौम्या गांव में पली बड़ी एक सरल स्वभाव की लड़की थी। उसने गांव में रहकर ही शिक्षा प्राप्त की थी, सौम्या बाहरी दुनिया से बेखबर थी। पढ़ने के लिए स्कूल जाना और वहां से सीधे घर आना यहीं तक उसकी दुनिया सिमटी हुई थी। घर के सारे कामकाज करना और पढ़ना उसकी दिनचर्या का हिस्सा था। सौम्या को बाहर आना-जाना बड़ा कठिन काम लगता था लेकिन पढ़-लिखकर नौकरी करने के सपने को आंखो में संजोए उसने स्नातक तक की पढ़ाई पूरी कर ली।
इसी दौरान सौम्या के बडे़ भाई की नौकरी शहर में लग गयी। सौम्या और उसके भाई-बहन बड़े भाई के साथ शहर रहने आ गए क्योंकि गांव में उच्च शिक्षा की सुविधा नहीं थी। गांव की सरल व शांत जिंदगी के बीच से निकलकर शहर की भीड़ भरी जिंदगी की तेज रफ्तार में कदम से कदम मिलाना आसान तो नहीं था लेकिन सपनों को साकार करने के लिए सौम्या इस रफ्तार के साथ सामजस्य बैठाने की कोशिश करने लगी। सौैैम्या अपनी पढ़ाई मन लगाकर करती लेकिन शहर की चकाचौंध और यहां की तेज रफ्तार उसकी शैक्षिक योग्यता पर हावी होने लगी क्योंकि घर से बाहर निकलकर शैक्षिक ज्ञान के साथ साथ व्यवहारिक ज्ञान का होना भी जरूरी था। धीरे-धीरे सौम्या शहर के तौर-तरीके सीखने लगी लेकिन फिर भी कहीं अकेले बाहर आने जाने में वो बहुत डरती थी। जब भी उसे किसी प्रतियोगिता परीक्षा के लिए शहर से बाहर जाना होता तो उसके साथ घर के किसी सदस्य को जाना पड़ता था इसी बात को लेकर उसके बडे़ भाई उसे अक्सर समझाते नौकरी करने के लिए घर से बाहर अकेले रहना पडेगा। सौम्या मुस्कुराकर बोल देती तब की तब देखी जाएगी और जब नौकरी लगेगी तब अकेले भी रह लूंगी। मम्मी-पापा भी इस बात पर हमेशा सौम्या का साथ ये बोलकर लेते कि लड़की है अकेले कैसे भेज दें ......? इस बात पर अक्सर बड़े भाई सब से नाराज होते लेकिन समय बीत रहा था।
एक दिन सौम्या के बडे़ भाई ने घर में मम्मी-पापा से कहा कि सौम्या का दाखिला आगे की पढ़ाई के लिए शहर से बाहर करवा दिया है उसे वहां रहकर पढ़ाई करनी होगी। इतने में मम्मी बोल पड़ी अकेले कैसे रहेगी...? फिर भाई ने मां को समझाया कि हम कब तक उंगली पकड़कर साथ चलेंगे उसे आत्मनिर्भर बनने दीजिए। सौम्या के मम्मी- पापा को अपने बेटे पर खुद से भी अधिक भरोसा था, सो सब मान गए और सौम्या ने भी हामी भरते हुए सिर हिला दिया। उसे मन ही मन में एक डर भी सता रहा था। अब सौम्या जाने की तैयारी करने लगी, भाई ने जाने लिए रेल टिकट का आरक्षण भी करवा दिया और दूसरे दिन बड़े भाई ने कहा सौम्या तुमने जाने की तैयारी कर ली...? इतने में आवाज आई जी भैया। भाई ने कहा चलो तुम्हें ट्रेन मैं बैठाने स्टेशन तक चलता हूं। ये सुनकर सबके चेहरे पर उदासी छा गयी और जैसे सबकी आंखों में सवाल उमड़ घुमड़़ रहे हां ,सौम्या भी मन में चल रही उधेड़बुन के साथ घर से निकली। स्टेशन पहुंचकर भाई ने सौम्या को ट्रेन में किसी महिला यात्री के साथ बैठाया और महिला से बोले ये मेरी बहन है, पहली बार अकेली जा रही है आप ध्यान देना। भाई ने सौम्या को एक डायरी देते हुए कहा इसमें फोन नंबर हैं यदि कोई परेशानी हो तो फोन कर लेना। सौम्या ने कहा ठीक है भैया। सौम्या के मन में एक अजीब सी उधेड़बुन चल रही थी और ना चाहते हुए भी मन में बुरे-बुरे ख्याल आ रहे थे। भाई सौम्या का हौंसला बढ़ा रहे थे लेकिन उनके खुद के चेहरे पर चिंता साफ झलक रही थी जिसे सौम्या साफ पढ़ पा रही थी। देखते ही देखते ट्रेन स्टेशन से रवाना हो गयी, जितनी रफ्तार से ट्रेन दौड़ रही थी उससे कहीं अधिक तेज सौम्या का मन दौड़ रहा था, मन में आशंकाएं दौड़ रही थीं। मन पल भर में कई सवाल करता और खुद ही उनके जवाब भी ढूंढ लेता ये कशमकश पूरे सफर में साथ चलती रही। पूरी रात सौम्या चैन से सो नहीं पाई और खुद से बातें करती रही। इसी उधेड़बुन में कब स्टेशन आ गया पता ही नहीं चला। सौम्या स्टेषन पर उतरी अब उसे अपने गंतव्य तक जाने के लिए दूसरी ट्रेन पकड़नी थी लेकिन उसके लिए ये सब आसान नहीं था उसने हिम्मत करके किसी से ट्रेन के बारे में जानकारी ली और आगे का सफर भी बिना किसी परेशानी के पूरा हो गया। अब सौम्या को होस्टल तक पहुंचना था उस दिन उसे लगा अपनों के बिना अकेले अपनी मंजिल तक पहुंचना कितना मुश्किल होता है फिर ऑटो करके होस्टल तक पहुॅच गई। होस्टल जाकर अपना पता वगैरहा लिखवाया, हालांकि भाई सौम्या के रूकने की व्यवस्था पहले से ही फोन पर कर चुके थे और उसे कमरा मिल गया। अब सौम्या कमरे में पहुंचकंर थकान से राहत महसूस कर ही रही थी कि इतने में कोई दरवाजे पर आया और बोला कि आपके घर से कोई आया है। सौम्या को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था, फिर उसने पूछा कि कौन है ? उसने बताया कि आपके भाई आए हैं। सौम्या कुछ भी समझ नहीं पा रही थी और कहा कि वो कहां हैं ? उसने बताया बाहर खडे हैं मिल लो। सौम्या बाहर पहुंची तो देखा सामने भाई खडे थे। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था, उसके चेहरे पर मुसकान भी थी और आंखों में आंसू भी। शब्द गले तक आ पहुंचे, ऐसा लगा जैसे वो बहुत कुछ कहना चाहती थी लेकिन कह नहीं पा रही थी। कुछ देर की खामोशी के बाद उसने पूछा आप कैसे आ गए ? उन्होंने हंसते हुए कहा कि ये तेरा नहीं मेरा और इस पूरे परिवार का इम्तेहान था। पहले सोचा था कि तुझे बैठाकर घर लौट जाउंगा लेकिन बाद में मन में तेरी परवाह ने मुझे इतना विवश कर दिया कि मैं तेरे पीछे यहां तक आ पहुंचा केवल ये देखने कि तुझे कोई परेशानी तो नहीं हुई। यकीन मानना ये परीक्षा बेहद कठिन थी, शायद जिंदगी की सारी परीक्षाओं से अधिक जटिल, लेकिन खुशी इस बात को लेकर हुई कि इसमें हम सभी पास हो गए क्योंकि भावनाओं ने हमें एक दूसरे से इतना मजबूती से बांधें रखा कि ये मुश्किल सा समय जीना भी कहीं न कहीं जरुरी सा लगा...। आज भी वो बात जब भी याद आती है, मन उस ईश्वर को धन्यवाद भी देता है कि उसने इतना अच्छा भाई और परिवार मुझे दिया है।
कमला शर्मा
अनंत गहराई
तेरी मोहब्बत का,
कुछ यूं हुआ असर,
हम खुद से ज्यादा,
तुझ पर यकीं करने लगे।
कभी-कभी लगता है डर,
तेरे प्यार की गहराई से,
कहीं डूब न जाउं,
प्यार के अहसासों में।
फिर सोचती हूं क्या हुआ ...?
डूब भी गई तो!
रहूंगी फिर भी तेरे प्यार की आगोश में,
हर पल तुझे महसूस करुंगी,
प्यार की इस अनंत गहराई में।
कमला शर्मा
...नन्हीं परी
क्यों कोख में ही
हो जाता भेदभाव
उस अजन्मी बच्ची से
जो कोख से प्रस्फुटित हो .....
अंकुरित होने को है व्याकुल
इस गर्भ गृह से
निकलने की उसकी अभिलाषा
पाना चाहती वो नन्हीं परी
ममत्व की शीतल छाया
उसे रौंद देना चाहता है
ये मानव प्रजाति का ही
संकीर्ण मानसिकता का दानव
क्यों ऐसा घृणित कृत्य कर
खुद का ही परिहास उड़ाता
जिस कोख से सृष्टि रचती
उसी स्त्री पर क्यों..
इतने घातक प्रहार
इस लिंग भेद की खाई ने
बना दी रिश्तों में दीवार
इस खाई में दम घुटता
उस नन्हीं अजन्मी बच्ची का
लेने दो उसे भी सांस
इस खुली स्वछंद हवा में
कमला शर्मा
कर्मपथ
जब भी हो कठिन डगर
न आंको अपने को कमतर
बस धैर्य को बांधे हुए
कर्मपथ पर रहो अडिग
माना बेशकीमती चीजों की
होती है मुश्किल डगर
लेकिन समय बताता
इनकी होती बड़़ी कदर
कमल कीचड़ में खिलता
अपना वजूद बनाए रखता
हीरा कोयले में मिलता
अपनी अलग चमक से
रत्नों में पहचान बनाता
गुलाब कांटों में खिलकर भी
अपनी मुस्कान बनाए रखता
कठिन डगर हौले से कहती
धैर्य है सफर का साथी
नदी का प्रवाह कभी तुमने देखा
पत्थरों से टकराकर बहती
फिर भी कठोरता को छोड़
अपना जल निर्मल ही रखती
कमला शर्मा
Friday, 9 June 2017
ये गणित और ये जिंदगी
जिंदगी भी गणित के फार्मूले जैसी ही है, समझ में आ जाए तो आसान है वरना इस उलझन से बाहर निकलना मुश्किल है। जब गणित विषय पढ़ा था तब इतना रोचक कभी नहीं लगा। एक फार्मूला जो मुझे बहुत रोचक लगा उसे आप लोगों से साझा कर रही हूं।
गणित में पढ़ा था कि समान चिन्ह वाली संख्याएं हमेशा जुड़ती हैं (परिणाम धनात्मक ही होता है, चाहे दोनों संख्याएं ऋणात्मक ही क्यों न हो...) और असमान चिन्ह वाली संख्याएं घटती हैं हमेशा (ऋणात्मक) होती हैं और चिन्ह बड़ी संख्या का ही लगता है। ऐसा ही कुछ हम अक्सर जिंदगी में भी महसूस करते हैं। विचारधारा समान हो तो परिणाम हमेशा सकारात्मक (धनात्मक) आता है लेकिन इसके विपरीत यदि असमान विचारधारा जब मिल जाए तो परिणाम नकारात्मक (ऋणात्मक) ही समाने आता है...और अपने-अपने वर्चस्व को श्रेष्ठ बताने की होड़ सी लग जाती है जैसा कि हमने गणित में पढ़ा है कि हमेशा चिन्ह बड़ी संख्या का ही लगता है।
जीवन में समान विचारधारा हमेशा ही श्रेष्ठ होती है और संबंधों में गहरी मिठास का सबब बनती है। मुझे लगता है कि समान और असमान विचारधाराओं का प्रार्दुभाव शिक्षा और ग्रहण करने की क्षमता पर निर्भर करता है...। इस दुनिया में जब बच्चा जन्म लेता है तो आभा मंडल तो लगभग एक समान ही होता है लेकिन जैसे-जैसे उसका विकास होता है वो अपने आप को गढता है, अपने विचारों को परिपक्व करता है....। यही वो दौर होता है जब विचारों में धनात्मक और ऋणात्मक जैसे चिन्हों का कोई असर नहीं होता लेकिन जब हम परिपक्व हो जाते हैं तब हमारा व्यवहार और क्षमता हमें और हमारे विचारों को सीमित कर देते हैं, हम अपने दायरे खुद तय कर लेते हैं कि हमें कहां तक और कैसे सोचना है...। जिंदगी में भी गणित वैसा ही है जैसा किताबों में...बस अंतर इतना है कि गणित में परिणाम हमेशा हमारी समझ पर निर्भर करता है उसे दोबारा सुधारा जा सकता है लेकिन जिंदगी में सुधार के अवसर बेहद सिमट जाते हैं....। ये हमारा बर्ताव ही तय करता है कि हमारी पीढी किस दिशा में जाएगी क्योंकि उसके विचारों में हमारी समझ का हिस्सा कुछ ही मात्रा में सही लेकिन समाहित तो अवश्य होता है...।
कमला शर्मा
Wednesday, 7 June 2017
अलबेली बेला
मन के अंतस को छूतीं
बूंदों की ये शीतल बेला
गहरे तक छू जातीं ये
बूंदों की अलबेली बेला
गहरे से मन के अंतस में
गहरी सी एक राग सुनाती
प्रकृति ये तुम जैसी सच्ची
नेह की बारिश हमें बताती
कमला शर्मा
बूंदों का ये नेह...
बारिश की बूंदों में नहाई
ये उनींदी सी, अल्हड़ प्रकृति
नेह के आलिंगन में निखरा
प्रकृति का अल्हड़ सा यौवन
बादलों से अठखेली करके
बारिश का यूं नेह बरसाना
रिमझिम सी बूंदों का ये स्पर्श
अहसासों में भीगता...
प्रकृति का चंचल सा मन
उसका यूं लजाकर
आंखें मूंद लेना...
बारिश की बूंदों का
हौले से नेह गीत सुनाना
प्रेम में समर्पित प्रकृति का
ये निखरा सा यौवन
जैसे कोई नयी-नवेली सी दुल्हन
कमला शर्मा
Subscribe to:
Posts (Atom)
Featured post
बारिश
बारिश की इन बूंदों को सहेज लेना चाहती हूँ अपनी हाथों की अंजुली में आने वाली पीढी के लिए लेकिन कितना अजीब है न !! ऐसा सब सोचना.....
-
आलोचक और निंदक एक आलोचक किसी भी विषय या दृष्टांत का समग्र निरीक्षण करने के पश्चात उसकी गलतियों या कमियों पर प्रकाश डालता है, उसे उजागर ...
-
यात्रा के दौरान मिले खट्टे-मीठे अनुभव जहां सफर को आसान बनाते हैं वहीं कुछ स्मृतियां हमारे जेहन में रह जाती हैं। ऐसा ही कुछ यात्रा वृतां...
-
दहलीज के उस पार जब भी कोई लड़की मायके से ससुराल की दहलीज में पदार्पण करती है, उसके मन में सवालों की झड़ी सी लग जाती है। नये रिश्ते, नये...