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Friday, 18 August 2017

ये अहसासों से सृजित देह


इस माटी की देह में
जिन अहसासों ने....
सांसों में धड़कन
रूह में जान डाली।
वे अहसास न जाने क्यों
लड़खड़ाते से नजर आने लगे
फिर से ये सृजित देह
न जाने क्यों...
अहसासों के बिना
बंजर सी, खुरदरी लगने लगी।
फिर से ये बेजान सी
माटी की मूरत में ढलने लगी।
भावनाओं के खाद-पानी बिना
रिश्ते सूखकर अपनों से ही
बिछड़ने लगे....
रिश्तों के दरकने से
चरमराती आवाजें भी
मौन हो गईं...।
न किसी की वेदना में
अब द्रवित होते हैं मन
न खुशी से प्रफुल्लित ही।
...फिर से ये सृजित देह
माटी के निष्प्राण टीले में
विघटित होने लगी है।
और यहीं कहीं दफन हो गई
अहसासों की अनमोल धरोहर।


कमला शर्मा

Thursday, 17 August 2017

प्रेम की तासीर



प्रेम में जैसे कोई
शीतलता की तासीर है
सूरज का दहकता रूप भी
जैसे ढलने लगता.....।
सांझ के करीब आते-आते
तपिश कहीं छोड़ आता
दूरदराज देश में
अहं त्यागकर हौले-हौले
खो जाता है सांझ की
शीतल सुरमई आगोश में।
गुनगुनाना चाहता है कोई
मधुर सुरीला संगीत
समुद्र की शांत लहरों में।
सांझ संग बतियाते हुए
बुन लेना चाहता है
जैसे कोई इंद्रधनुषी सपना।
इस मिलन में बिखर जाती
हया की सुर्ख लालिमा
इस सुरमई शाम में।
प्रकृति भी लजा जाती
और ओढ़ लेती सांझ की
मखमली नर्म चादर
और खो जाती इंद्रधनुषी
सपनों की दुनिया में.....।

कमला शर्मा

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बारिश की इन बूंदों को सहेज लेना चाहती हूँ अपनी हाथों की अंजुली में आने वाली पीढी के लिए लेकिन कितना अजीब है न !! ऐसा सब सोचना.....