बारिश की इन बूंदों को
सहेज लेना चाहती हूँ
अपनी हाथों की अंजुली में
आने वाली पीढी के लिए
लेकिन कितना अजीब है न !!
ऐसा सब सोचना...।
समय के साथ-साथ
विचारों में परिवर्तन होना
स्वाभाविक है ना...।
अपने बचपन में अक्सर
बारिश में खड़े होते थे
दोनों हाथ फैलाकर...
और पानी के प्रवाह में
बहती थी हर घर के आगे से
कागज की कश्ती....।
और मिट्टी की उस
सौंधी खूशबू में
सुगंधित होता था
नादान बचपन
लेकिन ! आज...
वो नादान सा बचपन
झांक रहा है खिड़की से
उन नन्हीं बूंदों को...
अकुलाई सी नजरों से।
डाँ. कमला शर्मा